शनिवार, 31 दिसंबर 2011

काले धन का पूरा सच 5

ग. भारत में रहकर जो लोग विदेशों में अपने खातों का सञ्चालन करते हैं. उनका टेक्नीकल इन्वेस्टीगेशन करके अर्थात इंटरनेशनल इन्फोर्मेशन Gateways पर सर्विलेंश (जाँच) के उपकरण लगाकर पता लगाया जा सकता है.
घ. मोरीशस रूट से देश में आया लगभग ५० लाख करोड़ रूपया इन्हीं भ्रष्ट लोगों का ही है. इसकी पूरी जाँच करके मोरीशस रूट से आये धन को भी राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने की ज़रूरत है. 
ड़. देश में जमा काले धन को वापस लेन व अन अकान्टेड मनी पर रोक लगाने के भी बहुत से उपाय हैं- जैसे बड़े नोट वापस लेना तथा जिनके पास हजारों करोड़ रुपये के बड़े नोट हैं उनका धन स्वतः सरकार के पास आ जायेगा तथा जिन लोगों के पास १ लाख से १० लाख रुपये हैं या जिनकी जितनी नौकरी या मेहनत की कमाई है उनको बैंकों से छोटे नोट मिल जायेंगे. इस विषय में विस्तार से चर्चा की जा सकती है. तथा भारत स्वाभिमान की दूसरी प्रचार सामग्री में इसकी विस्तार से चर्चा भी की गयी है. भारत में जिन भ्रष्ट लोगों ने सोना व ज़मीन आदि अन्य कामों में काले धन का निवेश किया हुआ है यदि सरकार चाहे तो इसका आसानी से पता लगा सकती है. बैंकों आदि के लोकर्स से सोना तथा तहसीलों पर निष्पक्ष जाँच करके भ्रष्ट लोगों के पास जो अवैध भूमि, भवन इत्यादि हैं इस सब का पता लगाया जा सकता है.
च. काले धन का पता लगाने के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त रहे व्यक्ति का नार्को टेस्ट भी करवाया जा सकता है. यह अंतिम विकल्प के रूप में बहुत ही कारगर सिद्ध होगा.
7. विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने का तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल व अन्य कठोर कानून बनाने के साथ ही ग़लत कानूनों, नीतियों व इस भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने का लोक तांत्रिक शासन प्रणाली में एक मात्र अधिकार किसके पास है? - चुनी हुई केंद्र सरकार या संसद के पास और संसद में सांसद चुनकर भेजने का एक मात्र अधिकार देश की जनता के पास है. अतः इस बार ऐसे सांसद चुन कर भेजो, ऐसी सरकार केंद्र में बनाओ जो काला धन देश को दिलवाए, भ्रष्टाचार मिटाए व भ्रष्ट व्यवस्थाओं को बदले.


आपका 
अनुभव शर्मा 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

काले धन का पूरा सच 4

जिस दिन भारत से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा तथा देश का लूटा हुआ धन वापस मिल जाएगा उस दिन भारत की अर्थव्यवस्था व मुद्रा इतनी मजबूत होगी कि १ रुपये की कीमत ५० डॉलर के बराबर होगी तथा भारत विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति होगा. आज भी भ्रष्ट व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार के बावजूद दुनियां के अन्य देशों की तुलना में भारत पर बाहर के देशों का लिया गया ०.२३७ ट्री लियन डॉलर (१०.६६ लाख करोड़ रुपये) तथा आतंरिक ऋण मात्र ०.८५५ ट्री लियन डॉलर (३८.४८ लाख करोड़ रुपये) है. भारत के बाद भरष्टाचार व काले धन की अर्थ व्यवस्था मिटाने का अभियान अन्य एशिया के देशों में भी चलेगा तथा भारत व एशिया का उत्थान होगा तथा हम यूरोप व अमेरिका से भी आगे बढ़ जायेंगे.

इस प्रकार विदेशी ऋण के रूप में लिया गया अधिकांश धन यह काला धन ही है. सभी देशों को आज धन चाहिए, जब अपने देश के ही विकास के लिए धन की सभी देशों को जरूरत है, फिर विदेशी ऋण के रूप में कोई क्यों किसी दूसरे देश को ऋण के रूप में पैसा देगा? काला धन जिस देश का है यदि उस देश को मिल जाये तो भारत सहित दुनियां में कोई भी देश गरीब नहीं रहेगा. काला धन व भ्रष्टाचार यही पूरी दुनिया की सबसे बड़ी दो समस्याएँ हैं.

४. भारत का यह काला धन कहाँ जमा है? - स्वीटज़रलैंड, दुबई, इटली, बहामास, सेंटकिट्स, विर्जिन आई लैंड व सिंगापूर आदि ७० से ज्यादा देश हैं, जहाँ ये काला धन जमा है.
५. विदेशों में ये देश का धन कैसे जाता है? -बैंकों की गोपनीयता का लाभ उठाकर हवाला, ओवर इन्वोइसिन्ग करके तथा भ्रष्टाचारी व्यक्ति खुद स्वीटज़रलैंड आदि जाकर वहां जमा कराते हैं. अब तो भारत में केंद्र सरकार ने स्वीटज़रलैंड व इटली आदि के बैंकों को भारत में खाता खोलने के लिए लाईसेंस दे दिया है. जो काला धन जमा करते हैं. जिससे की बेईमान लोगों को देश का लूटा हुआ धन विदेशी बैंकों में जमा करने में कोई परेशानी न हो.
६. यह कैसे पता चलेगा की किसका कितना कालाधन किस देश में जमा है तथा यह कैसे वापस आयेगा?-
क. सरकार एक कानून बनाकर सभी भारतीयों से सात दिन या एक सुनिश्चित अवधि के अन्दर अपने विदेशी बैंकों में जमा धन या अन्य संपत्ति का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करने को कहे उपरोक्त अवधि में जिनका विवरण प्रस्तुत न हो उनका धन या संपत्ति विदेशी बैंकों में पाई जाने पर उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाये व जिसने उसे जमा करवाया उसे राष्ट्र द्रोह का अपराधी घोषित करे. इसके पश्चात ही सभी टैक्स हैवन देशों से भारतीयों के जमा धन का विवरण उपलब्ध हो सकेगा. क्योंकि वह राष्ट्रीय संपत्ति है. और राष्ट्र द्रोह करके जमा की गयी है. और U .N.C .A .C . की अंतर राष्ट्रीय संधि के अनुसार सभी देशों को यह जानकारी भारत को उपलब्ध करानी ही होगी. यदि विदेशों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित नहीं किया गया और इसे कृत्य को राष्ट्र द्रोह का अपराध नहीं माना  तो काले धन का विवरण टैक्स हैवेन देश कभी देंगे ही नहीं. क्योंकि स्वीटज़रलैंड आदि टैक्स हैवेन देश कर चोरी को संज्ञेय अपराध नहीं मानते और जब तक जिस कृत्य को दोनों देशों में ग़ैर क़ानूनी न माना गया हो तब तक दूसरे देश हमारी मदद करने को बाध्य नहीं हैं. राष्ट्र द्रोह को दुनियां के सभी देश सामान रूप से संज्ञेय अपराध मानते हैं. काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करके तथा विदेशों में काला धन जमा करने को राष्ट्र द्रोह का अपराध घोषित करके विदेशों में काला धन जमा करने के खिलाफ राष्ट्र द्रोह का कानून बना करके इन भ्रष्ट लोगों पर राष्ट्र द्रोह का मुकदमा दायर किया जाये. ताकि अंतर राष्ट्रीय संधियों व क़ानूनी प्रावधानों (युनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन) के तहत जब भारत स्वीटज़रलैंड सहित सभी टैक्स हैवेन देशों से काले धन की जानकारी मांगेगा तो इनको जानकारी देनी ही पड़ेगी. और यह काला धन देश में वापस आयेगा.

ख. जिन देशों में ये काला धन जमा है उन सभी देशों के दूतावास भारत में हैं. जब भी ये भ्रष्ट लोग उन देशों में जाते हैं तो जाने से पहले उन देशों का उन्हीं दूतावास से वीजा लेते हैं. इसके साथ-साथ भारत सर्कार के भी इमिग्रेशन विभाग को पता होता है कि कौन व्यक्ति किस देश में जा रहा है तथा कहाँ से जा कर आया है. ये पूरा विवरण सरकार के पास है. इस पर तुरंत कार्यवाही कर के सरकार पता लगा सकती है कि काला धन जमा करने वाले कौन लोग हैं? कुछ लोग स्वीटज़रलैंड व अन्य टैक्स हैवेन देशों में घूमने, नौकरी करने व अपने रिश्ते दरों के पास भी जा सकते हैं लेकिन कुछ बड़े नेता, बड़े अधिकारी तथा बड़े व्यापारी बार बार वहां पर जाते हैं. इसका मतलब वे ही बेईमान हैं. और बार बार पैसा जमा करवाने के लिए ही जाते हैं.

काले धन का पूरा सच 3

सोचने की बात यह है कि ये देश दुनियां के सबसे संपन्न देश माने  जाते हैं. और ये ही महाकर्ज में डूबे हैं. और ये कर्ज का पैसा थोडा नहीं है. तो आखिर इन्हें यह कर्ज दे कोंन रहा है? जबकि विश्व के सभी देश भी कर्ज में ही डूबे हुए हैं. तो क्या ये असीम कर्ज का पैसा चाँद या मंगल से आया है? दुनिया के शीर्ष अर्थ शास्त्रियों व संस्थाओं की बात मानें तो ये कर्ज का पैसा काले धन का ही है. और पूरी दुनिया में जितना भी कला धन है उसमें आधा तो भारत का ही है. एक और मजे की बात यह है के इनमें शीर्ष १० देश भी तीन महीने में लगभग ११५ लाख करोड़ रुपये ओर कर्ज ले लेते हैं. यूरो एरिया भी तीन महीने में ५७ लाख करोड़ से अधिक का कर्ज ले लेटा है. दूसरे अन्य देशों का भी कर्ज हर महीने बढ़ ही रहा है. आखिर ये पैसा आ कहाँ से रहा है? क्या आसमान से टपक रहा है? इसकी गहराई में जाने से यह पता चलता है कि हमारे देश के किसान, मजदूर, माध्यम वर्ग के व्यापारी, शिक्षक, सैनिकों आदि ने जो पैसा मेहनत करके कमाया ओर टेक्स के रूप में सरकार को दिया उसी हमारी खून पसीने की कमाई को इन भ्रष्टाचारियों ने लूटकर विदेशों में भेज दिया. ओर इसी कारन हमारे देश का ८४ करोड़ लोगों का एक बड़ा वर्ग गरीबी रेखा के निचे जीवन यापन करने को मजबूर है. भूखे , फटे हाल, बेघर व बेसहारा इन लोगों के बच्चों की तो ओर  भी दयनीय स्थिती है. पर आश्चर्य की बात यह है कि हमारी मेहनत की कमाई से विदेशी लोग अय्याशी कर रहे हैं. ओर हमारे ऊपर ही शासन कर रहे हैं. यह बात प्रत्येक भारत वासी को बड़ी गंभीरता से सोचनी होगी कि आखिर ये सभी अमीर देश इतना कर्ज कहाँ से ला रहे हैं? कहीं ये हमारे खून पसीने की गाढ़ी कमाई का पैसा तो नहीं? और यदि है तो इसको वापस कैसे लाया जाये? या यूँ ही अन्याय को सहन कर बच्चों सहित भूखे मर जाएँ?

उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि विश्व के १५ देशों ने २०११ के पहले तीन महीने की अवधि में १२४ लाख करोड़ का नया विदेशी कर्ज लिया है. इस प्रकार ये देश एक वर्ष की अवधि में लगभग ५०० लाख करोड़ का नया विदेशी कर्ज ले लेते हैं.  विश्व के शीर्ष अर्थशास्त्री भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि अमेरिका जैसे विकसित देशों द्वारा लिया गया विदेशी कर्ज वास्तव में भारत जैसे प्राकृतिक संसाधन संपन्न देशों का ही धन है. जो काले धन के रूप में विदेशी कर्ज के तौर पर देश से बाहर चला गया है. विदेशी ऋण के रूप में देश से बाहर गया यह काला धन स्थायी रूप से किसी एक देश में नहीं ठहरता बल्कि अगले नए देश में गतिशील रहता है. भारत का स्विटज़रलैंड के बैंकों में जमा काला धन अब दुबई, सिंगापुर व मोरिशस आदि देशों में जा रहा है. यह भी कम रोचक बात नहीं है कि कुल मिलकर विश्व के सभी देशों की जी0 डी0 पी0 (सकल घरेलु उत्पाद) का जितना आकार है लगभग उतना ही विश्व के सभी देशों पर विदेशी ऋण है. वर्तमान में विश्व के सभी देशों की जी0 डी0 पी० लगभग ६२ ट्रीलियोन डॉलर की हैं. जबकि विश्व के सभी देशों पर कुल मिलाकर लगभग इतना ही बहरी या विदेशी ऋण है.

इस प्रकार लगभग इस ३ हजार लाख करोड़ रुपये में से भारत का ४०० लाख करोड़ से अधिक काला धन तथा देश की आतंरिक व्यवस्था में भी लगभग १०० लाख करोड़ रुपये काला धन विद्यमान है. इससे बड़ी दुखद घटना, आश्चर्य, अन्याय और क्या होगा? की भारत व एशिया के अन्य देशों के काले धन से यूरोप के देश विकास व विलासिता करें तथा भारत व एशिया के लोग भूखे मरें. यह कितनी शर्म, आश्चर्य व अन्याय पूर्ण बात है. यह पाप तुरंत बंद होना चाहिए. भारत में ग़रीबी के कारण भूख व कुपोषण से मरने वालों की संख्या 'ग्लोबल हंटर रिपोर्ट' के अनुसार १ मिनट में १३, एक घंटे में ८८३ तथा एक दिन में २० हज़ार है.

आपका
अनुभव शर्मा

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

काले धन का पूरा सच 2

काले धन को विदेशी ऋण के रूप में जिन देशों ने लिया हुआ है उनमें कुछ देशों के नाम इस प्रकार हैं-
नोट- दुर्भाग्य से हम जिसे काला धन कहते हैं , वहीँ काला धन स्विटज़रलैंड आदि ७० टैक्स हैवन्स देशों के बैंकों में जमा हो जाता है. और अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस व इटली आदि में वह काला धन एक्सटर्नल डेट अथवा फ़ोरेन इन्वेस्टमेंट के रूप में पहुंच जाता है. तथा भारत में भी वहीँ काला धन जब मोरीशस रूट से आता है तो वहीँ अनैतिक रूप से अर्जित धन अपने  देश में भी फ़ोरेन इन्वेस्टमेंट के रूप में वापस आ रहा है.
 उदाहरण के रूप में अमेरिका यूरोप आदि के कुछ देशों पर ऋण की स्थिति इस प्रकार है-

विश्व के सबसे अधिक     २०१० की अंतिम तिमाही में      २०११ ...                             इन देशो द्वारा तीन माह में
विदेशी कर्ज में दुबे देश     विदेशी कर्ज की स्थिति                                                    लिया गया विदेशी कर्ज
                                                    मिलियन डॉलर   लाख करोड़ रुपये    मिलियन डॉलर लाख करोड़ रूपये   मिलियन डॉलर लाख करोड़ रुपये
१. अमेरिका                     १४४५६१९४    ६५०.५२          १४८२५३०८  ६६७.१४          ३६९११४       १६.६१
२. इंग्लैंड                         ८५६१७५६     ३८५.२८           ९३७४८६८   ४२१ .८७         ८१३११२       ३६.५९
३. जर्मनी                         ५२०८०३९     २३४ .३६           ५४४२०८२  २४४.८९          २३४०४३      १०.५३
४. फ्रांस                            ५०९१२६०     २२९.११              ५३६६८३९   २४१.५१          २७५५७९     १२.४०
५. जापान                        २५८८६०७    ११६.४९              २६४०९३६    ११८.८४          ५२३२९         २.३५
६. इटली                           २४२७९४१    १०९.२६              २६०१७२२    ११७.०८          १७३७८१       ७.८२
७. होल्लैंड                        २४२६९४१     १०९.१२              २५४७१८६   ११४.६२          १२०२४५        ५.४१
8. स्पेन                            २३१४८५४    १०४.१७             २४५६४०३   ११०.५४         १४१५४९         ६.३७
9. आयरलैंड                     २१४१०९५      ९६.३५              २३८२१८७    १०७.२०         २४१०९२         १०.८५
१०. लग्ज़म्बर्ग                  १९५४७२९    ८७.९६               २०७६५३५   ९३.४४          १२१८०६           ५.४८
इन दस देशों का कुल         ४७१७१४१६   २१२२.७१         ४९७१४०६६   २२३७.१३      २३६८८६९        ११४.४२ 
११. बेल्जियम                   १२९२०६८       ५८.१४            १३२४६६६      ५९.६१           ३२५९८            १.४७
१२. स्वित्ज़रलैंड               १२९१४७१       ५८.१२            १३०४३७८      ५८.७०         १२९०७              .५८
१३. ऑस्ट्रेलिया                 ११६७२७२      ५२.५३           १२२५५९५     ५५.१५         ५८३२३           २.६२
१४. कनाडा                       १०९७३३४       ४९.८३           ११५०००९        ५१.७५         ५२६७५          २.३७
१५. स्वीडन                      ९४४२९२         ४२.४९           १०००९६१         ४५.०४         ५६६६९            २.५५
इन १५ देशों का कुल         ५२९६३८५३    २३८३.३७      ५५७१९६७५   २५०७.३९     २५८२०४१   १२४.०१ 
१६. यूरो एरिया                 १३७१५१४०       ६१७.१८        १४९८९०४९       ६७४.५१     १२७३९०९     ५७.३३


इंग्लैंड ने पिछले एक वर्ष से अपने कर्ज का ब्यौरा देना बंद कर दिया है (शायद बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण)  अतः २००९ की पहली तिमाही के आंकड़े दिए गए है. इसमें दूसरी तिमाही के आंकड़े छापे नहीं गए है (स्पेस कम होने के कारण). एवं यूरो एरिया (१७ देशों का समूह) की भी यहीं स्थिति है. अतः इनके २०१० की दूसरी व तीसरी तिमाही के आंकड़े यहाँ दिए गए हैं.

आपका
अनुभव शर्मा 

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

काले धन का पूरा सच

आखिर काले धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आन्दोलन से सरकार इतनी क्यों दर गयी? क्यों लोक तंत्र की हत्या की गयी? आपके सामने प्रमाणिक तौर पर रखते हैं इस काले धन का पूरा सच|

१. काला धन क्या है? - अवैध खनन करके, सरकारी योजनाओं के धन की चोरी करके, रिश्वत खोरी व टैक्स की चोरी करके जो धन देश में या विदेश में जमा किया गया है वह काला धन है| काला धन हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है. इस पर १२१ करोड़ भारतीयों का हक है. अपने देश में ८९ प्रकार की लगभग २० हज़ार करोड़ रुपये की तो मात्र भूसम्पदायें ही हैं. इनमें से कई सो लाख करोड़ का कोयला, लोहा, गैस, पेट्रोल व हीरा आदि तथा इसी प्रकार अन्य राष्ट्रीय संपदाओं भूमि, भूसंपदा, २ जी०, ३ जी० आदि वैज्ञानिक संपदाओं, जंगल, जड़ी, बूटी आदि सब कुछ धरती, आकाश व पाताल आदि की सभी संपदाओं को कुछ भ्रष्ट व बेईमान लोगों ने बेच दिया है. और इस लूटे हुए देश के धन को देश में तथा विदेश में जमा कर दिया. इस धन पर इन बेईमानों का कोई अधिकार नहीं है. यह देश का धन है. 

२. यह काला धन कितना है? - ग्लोबल फाईनैन्शियल   इंटेग्रिटी (जी0 आई0 ऍफ़०), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई0 एम्0 ऍफ़०), vishva बैंक (वर्ल्ड बैंक), टैक्स जस्टिस नेटवर्क तथा ट्रांस पेरेंसी इंटर नेशनल आदि सभी विश्व की   आर्थिक संस्थाओं के अध्ययन, विश्व के प्रमुख अर्थ शास्त्रियों का अनुमान तथा भारतीय रिज़र्व बैंक के द्वारा छापी गयी मुद्रा (नोट) आदि बातें, इस बात का पक्का प्रमाण हैं की भारत का लगभग ४०० लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा काला धन है. इसमें लगभग ७५ प्रतिशत विदेशी बैंकों स्विट ज़रलैंड, मोरीशस, इटली, दुबई, सिंगापुर व लग्ज़म्बर्ग आदि में जमा है तथा लगभग २५ प्रतिशत काला धन देश में ही ज़मीन, सोना एवं अन्य कार्यों में लगा है.

३. विदेशों में जमा काला धन किसका  है तथा इसका उपयोग कौन कर रहे हैं? - सबसे अधिक काला धन कुछ भ्रष्ट नेताओं तथा इसके बाद कुछ भ्रष्ट अधिकारियों तथा कुछ बेईमान बड़े उद्योगपतियों के पास ये काला धन है. विदेशी बैंकों में जमा इस काले धन का विदेशी ऋण  के रूप में विश्व के बड़े देश उपयोग करके विकास कर रहे हैं. तथा विलासिता कर रहे हैं. तथा भारत व अन्य देश इस भ्रष्टाचार व काले धन के कारण गरीबी, भूख, अभाव व अपमान में जी रहे हैं. 

आपका
अनुभव शर्मा

एक मंत्र 2

ॐ जिम्ह्श्ये चरितवे मघोन्या भोगये इष्टये राये उ त्वं.
दभ्रं पश्यद भ्य उर्विया विचक्ष उषा अजीगर्भुव्नानी विश्वा..

जो लोग रात्रि के चतुर्थ प्रहर उठकर शयन पर्यंत समय को व्यर्थ नहीं खोते वो सुखों को प्राप्त होते हैं अन्य नहीं.


आपका 
अनुभव शर्मा 

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

एक मंत्र

ॐ स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा.
यत्र देवा अमृत मानशानास्त्रितीये धामन्न ध्यै रयंत..

जो परमात्मा अपने भ्राता के समान सुखदायक अपने समस्त कार्यों का पूर्ण करने वाला समस्त नाम स्थान व जन्मों को जानता है जिस मोक्ष स्वरुप परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त हो के विद्वान् लोग स्वेच्छा पूर्वक विचरते हैं वह परमात्मा अपना न्याय धीश, गुरु व राजा है. ऐसे परमात्मा की शुभ कर्मों के द्वारा भक्ति अर्थात उसकी आज्ञा पालन में हम लोक सदैव तत्पर रहें.

आपका
अनुभव शर्मा 

बुधवार, 1 जून 2011

भारत स्वाभिमान: हमारे सपनो का भारत: स्वामी रामदेव प्रणीत:-!! राष्ट्रधर्म !!

१. राष्ट्र धर्म 
राष्ट्रधर्म को समझने के लिए प्रत्येक भारत वासी को आवश्यक है की वह राष्ट्र की शक्ति व् सम्पदा के अवं राष्ट्र की ज्वलंत समस्यायों व चुनौतियों के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त करे, अपने समाज, समूह, कार्यक्षेत्र, व सभाओं आदि में भी हमें उक्त विषय की जागरूकता पैदा करनी चाहिए. योग्कक्षयों में भी योगाभ्यास के साथ-साथ प्रतिदिन ५ से १० मिनट राष्ट्र-शक्ति व हमारे राष्ट्रधर्म के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें लोगों को बतानी चाहिए तथा लोगों को समझाना चाहिए की हम देश के लिए क्या कर सकतें हैं. इन बिन्दुओं को पहले संक्षिप्त रूप में तथा बाद में विस्तारपूर्वक प्रत्येक ग्रामवासी व राष्ट्र वासी को समझाएं.

१. राष्ट्र की शक्ति- हमारे देश में ८९ प्रकार की भुसम्पदायें हैं- लोहा, कोयला, ताम्बा, सोना, चंडी, हीरा, ऐल्युमुनियम  आदि धातुएं तथा गैस व पट्रोल से लेकर बहुत से मिनरल्स हैं इन सबके ज्ञात भंडार(रिज़र्व्स) का यदि आर्थिक मूल्याकन  किया जाये तो यह करीब १० हज़ार लाख करोड़ रूपये होते हैं. इसमें अकेला कोयला ही(केवल ज्ञात भंडार) २७६.८१ बिलियन टन है जिसका मूल्य लगभग ९५० लाख करोड़ रुपये है. लोहे के ज्ञात भंडार लगभग १५.१५ बिलियन टन है. ऐसी ही अन्य बहुत सी बेशकीमती चीजें भारत माता के गर्भ में छिपी हैं. यदि हमनें इन बेईमान लोगों को नहीं हटाया तो ये सब देश की सभी संपदाओं को लूट लेंगें. भूसंपदाओं के अतिरिक्त जल, जंगल, जमीं, जड़ी-बूटी व अन्य राष्ट्रीय सम्पदायों के साथ-साथ बौद्धिक, आर्थिक, चारित्रिक व आध्यात्मिक दृष्टि से भी भारत दुनिया का सबसे बलवान व धनवान देश है.

२. महाशक्ति भारत- हमारा भारत देश जर्मनी, जापान और फ़्रांस जैसे देशों से कम से कम ५० गुना अधिक शक्तिशाली है. जिस दिन भ्रष्टाचार मिट जायेगा उस दिन भारत वश्व की आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा. दुनिया की पांच बड़ी संस्थाएं आई.एम.ऐफ ., वर्ड बैंक, डब्लू.एच.ओ.,डब्लू.टी.ओ.,सब यहीं से हम संचालित कर पायेंगें. हम वर्ड सुपर पावर होंगें, हम दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक, राजनैतिक व आध्यात्मिक शक्ति होंगें और यह सब हमारे लिए बड़े गर्व की बात होगी.
क्रमशः........................

भारत स्वाभिमान: हमारे सपनो का भारत: स्वामी रामदेव प्रणीत:-!!राष्ट्र निर्माण हेतु आवाह्न

       सभी देश भक्त नागरिको से हम ये आवाह्न करते हैं की इस पुस्तिका हमारे सपनों का भारत को अधिक से अधिक संख्या में छपवाकर लोगों तक पहुचें और इस वैचारिक-क्रांति द्वारा सम्पूर्ण परिवर्तन के इस पुनीत कार्य में सहयोग करें.
       आप इस समग्र-पुस्तिका के साथ-साथ अपनी रूचि अथवा प्रासंगिकता के अनुसार इन सात प्रकार की विषय-वस्तु में से चयन करके अलग से किसी एक अथवा अधिक विषय-वस्तु  को छपवाना चाहें तो इसमें से चयन करके मूल विषय वस्तु से छेड़छाड़ किये बिना भारत स्वाभिमान संस्था व् प्रकाशक का उल्लेख करते हुए अपने नाम के साथ अलग से स्थानीय भाषा मन पत्रक बनाकर भी अधिक से अधिक संख्या में मुद्रित कराकर वितरित करवाएं तथा हर घर व् हर ग्राम तक यह राष्ट्र-निर्माण का सन्देश पहुचाकर अपना राष्ट्र धर्म निभाएं.

रविवार, 22 मई 2011

भारत स्वाभिमान: हमारे सपनो का भारत: स्वामी रामदेव प्रणीत: !!प्रस्तावना!!

प्रस्तुत पुस्तक का एक एक वाक्य इस भारत में एक नई क्रांति को जन्म देगा तथा भारत के नागरिकों में एक नयी प्रेरणा, उत्साह एवं अदम्य साहस का संचार करेगा. हमें पूरा विश्वाश है की प्रस्तुत पुस्तिका से व्यक्ति अव ग्राम-निर्माण से राष्ट्र-निर्माण का स्वरुप एवं युग-निर्माण की आधार शिला तैयार होगी.
भारत स्वाभिमान एक बहुत व्यापक अध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक युग परिवर्तन का आन्दोलन है. इस समग्र अभियान के बारे में पूरी जानकारी या स्पष्ट्बोधता नहीं होने के कारण देश के बहुत से सामान्य व्ताक्तियों से लेकर बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, उद्योगपतियों, नीतिनिर्धारकों व शीर्ष-पत्रकारों के मन में भी बहुत से प्रश्न समय-समय पर उठतें रहतें हैं. आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं एवं पक्षों जैसे-पूँजीवाद व धर्म-निरपेक्ष समाजवाद(सेकुलर सोशलिज्म) के स्थान पर विकेन्द्रित विकासवाद एवं आध्यात्मिक समाजवाद का समग्र विकास का भारतीय-दर्शन के विभिन्न विषयों पर "हमारे सपनों का भारत" के नाम से भारत स्वाभिमान के मूल-दर्शन, सैधांतिक अथवा वैचारिक-पक्ष, हम इस लघु-पुस्तिका के रू[प में प्रस्तुत कर रहें हैं. स्वस्थ, समर्थ व संस्कारवान व्यक्ति के निर्माण से आदर्श ग्राम-निर्मन व आदर्श भारत की योजना का यह संक्षिप्त प्रारूप हम देशवासियों के सामने रख रहें हैं. भविष्य में राष्ट्रधर्म के उक्त ६० विषयों अथवा अन्य बिन्दुओं पर भी, यदि आवश्यक हुआ, तो विस्तार से हम लिखने का प्रयास करेंगें. भारत स्वाभिमान के मूल विचारों को पढनें के बाद आप भी इस अभियान के प्रबल समर्थक बनकर राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगें, एसा हमें पूर्ण विश्वास है.

आचर्य बालकृष्ण
घोषणा: हम इस भारत स्वाभिमान आन्दोलन के प्रबल समर्थक हैं तथा हम जिस प्रकार विचारों से प्रेरित होकर हम इस अभियान के समर्थक बनें हैं अन्य भी बन सकें इस उद्देश्य से "भारत स्वाभिमान ट्रस्ट" द्वारा प्रकाशित पत्रिका "हमारे सपनों का भारत" को उसके मूल रूप में यहाँ प्रकाशित कर रहें है. इस पोस्ट का एक-एक अंश इस पुस्तक से लिया गया है तथा इसमें लेखक का अपना एक भी विचार नहीं है. इस पत्रिका को यहाँ प्रकाशित करने का उद्देश्य मात्र इस अभियान के लिए भारतियों का समर्थन प्राप्त करना तथा उन्हें स्वामी जी के आन्दोलन के प्रति जागृत करना है.

निवेदन: कृपया इस पोस्ट तथा इससे सम्बंधित पोस्ट ध्यान से पढ़ें तथा यदि यह आपके हृदय तक पहुचें तो अपनी उपस्थिति ४ जून २०११ से होने वाले भ्रष्टाचार मिटाओ सत्याग्रह में दर्ज कराये.

भ्रष्टाचार मिटाओ सत्यागृह
४ जून २०११ से रामलीला मैदान, दिल्ली में
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आपकी शुभाकान्क्षिनी 
गीतांजली शर्मा कौशिक 

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

संध्या तृतीय

संध्या वह समय है जब दिन और रात्रि का मिलान होता है. यह दिन में दो बार आती है।
अब इस तृतीय भाग में मैं आपको यजुर्वेद के चार मन्त्रों की व्याख्या बता रहा हूँ. इन मन्त्रों की सहायता से हम परमात्मा के साथ निकटता का अनुभव करते हैं इसी कारण इन मन्त्रों को उपस्थान मन्त्र कहते हैं.
उपस्थान मन्त्र
ॐ उद्वयं तमसस्परि  स्वः पश्यंत उत्तरं. देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।15
हे प्रभो आप अज्ञान और अंधकार से परे प्रकाश स्वरुप प्रलय के पश्चात् रहने वाले दिव्य गुणों के साथ सर्वत्र विद्यमान देव चराचर के आत्मा हैं. आपको जानकार हम आपके उत्तम ज्योति स्वरुप को सत्य से प्राप्त होवें।
ॐ उदुत्यम्  जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः दृशे विश्वाय सूय् र्यम् ।16
हे जगदीश्वर! उस आप सकल एश्वर्य के उत्पादक जीव आत्मा के प्रकाश हैं. आपकी दिव्यगुण युक्त महिमा को दिखाने के लिए संसार के समस्त पदार्थ पताका का कार्य करते हैं. जिस प्रकार झंडियाँ मार्ग दिखाती हैं. उसी प्रकार सृष्टि नियम, वेद श्रुति निश्चय से भली प्रकार जनाते हैं, प्रतीति कराते हैं.
ॐ चित्रं देवानामुद्गादनीकम्  चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने: आ प्रा द्यावा पृथ्वी अन्तरिक्षम्  सूर्य आत्मा जगतस्तस्  थुशश्च स्वाहा।17
हे स्वामिन आप विद्वानों और योगाभ्यासियों के ह्रदय में सदा प्रकाशित रहने वाले हैं. आप हमारे हृदयों में यथावत प्रकाशित रहें. आप दिव्य पदार्थों के बल हैं. इसलिए राग द्वेष रहित मनुष्य का, सूर्य लोक का, प्राण का वर अर्थात श्रेष्ठ गुण कर्मों में वर्तमान का, अपान का, व्यान का, अग्नि का, विद्या का  दर्शक अथवा प्रकाशक है. द्योलोक, पृथ्वी लोक, अंतरिक्ष लोकों को बना के धारण और रक्षण करने वाले हैं. भगवन! आप चेतन जगत और जड़ जगत के उत्पादक और अंतर्यामी हैं. हे प्रभो! वेद वाणी ने स्वः(स्व वागाह इति व) ऐसा कहा है. हम मन, वचन और कर्म से सत्य को धारण करें.
हे प्रभु आप अदृश्य चेतना हैं, आप सभी लोक लोकांतरों के स्वामी हैं।   आपकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना के बिना हम कभी भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते अतः हे प्रभु आप हमें अपनी स्तुति प्रार्थना और उपासना के मार्ग पर चलाईये।  ऐसी हम पर कृपा कीजिये।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरास्ताच्छुक्रमुच्चरत पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम् शरदः शतं प्रबवाम शरदः शतं अदीनाः  स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।।18
हे भगवन! आप नेत्र के तुल्य सब के दृश्य अनादि काल से विद्वानों और संसार के हितार्थ शुद्ध ज्योति रूप वर्तमान हैं. आप चेतन ब्रह्म को हम सौ शरद ऋतु पर्यंत देखें, सौ शरद ऋतु पर्यंत जीवें, सौ शरद ऋतु पर्यंत वेद, शास्त्र और मंगल वचनों को सुनें, सौ शरद ऋतु पर्यंत वेदादि पढावें और सत्य का व्याख्यान करें, सौ शरद ऋतु पर्यंत आयु भर पराधीन न हों।  यदि सौ शरद ऋतुओं से भी अधिक आयु हो तो इसी प्रकार विचरें।


यह भी अवश्य पढ़ें : सिद्धियां

अगली पोस्ट में फिर मिलते हैं.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

संध्या द्वितीय

जो वेद को पढता रहे और उसके अनुसार आचरण न करे ऐसे आचारहीन पुरुष को वेद भी पवित्र नहीं करते. चाहे उसने वेदों क ६ अंगों सहित भी पढ़ा हो. ऐसे अनाचारी मनुष्य को वेद ज्ञान मृत्यु के समय इस प्रकार छोड़ देता है जैसे कि पक्षी पंख निकलने पर अपने प्रिय घोंसले को त्याग देता है.
अतः हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर की सत्ता, धर्म, पुनर्जन्म तथा कर्म फलादि के प्रति अपनी आस्था रखते हुए वेदानुकूल आचरण धारण करते हुए सदाचारी जीवन व्यतीत करना ही इस मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।
परमात्मा का रचाया हुआ ज्ञान और विज्ञान वेद मन्त्र में निहित रहता है परन्तु परमात्मा का जो विशाल विज्ञान है अथवा ज्ञान है उसकी रचना का नृत है, उसके लिए मानव सदैव विचरता रहता है. संध्या का अभिप्राय है कि हम परमपिता परमात्मा के ब्रह्ममई विचारों में, उसकी उपासना में रत हो जाएँ  और उपासना करते रहें कि हे देव! तू महान और विचित्र बन कर के हमारे अंग संग रहने वाला है।
(मनसा परिक्रमा मन्त्र)
अब मैं संध्या के ६ मन्त्रों की व्याख्या लिख रहा हूँ।

ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरासितो रक्षितादित्या इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।9

हे सर्वज्ञ परमेश्वर! आप हमारे सम्मुख पूर्व दिशा की ओर विद्यमान हैं. स्वतंत्र राजा और हमारी रक्षा करने वाले हैं. अपने सूर्या को रचा है जिसकी बाण रुपी किरणों द्वारा पृथ्वी पर जीवन रुपी साधन आता है. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पूर्व दिशा में विद्यमान अग्नि रूप कहलाते हैं।

ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोSधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।10
हे परम ऐश्वर्यवान भगवन! आप हमारे दक्षिण दिशा की और व्यापक हैं. आप हमारे राजाधिराज और भुजंग आदि  बिना हड्डी वाले जंतुओं की जो पंक्ति है उनसे हमारी रक्षा करते हैं. और ज्ञानियों के द्वारा हमें ज्ञान प्रदान कराते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु दक्षिण दिशा में विद्यमान होकर इंद्र कहलाते हैं।
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोSधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।11
हे सौंदर्य के भण्डार! आप पश्चिम दिशा की और हैं. हमारे महाराज हैं, बड़े बड़े हड्डी वाले और विषधारी जंतुओं से हमारी रक्षा करते हैं. और अन्नादि साधनों के द्वारा हमारे जीवन कि रक्षा करते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पश्चिम दिशा में विद्यमान होकर हमें भोजन, अन्नादि पदार्थों के देने वाले हैं इसलिए वरुण कहलाते हैं।
ॐ उदीची दिक् सोमोSधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।12
हे पिता! आप हमारे बायीं उत्तर दिशा की ओर व्यापक और हमारे और हमारे परम ऐश्वर्य युक्त स्वामी हैं. आप स्वयंभू और रक्षक हैं. आप ही विद्युत् द्वारा समस्त संसार के लोक लोकान्तरों की गति तथा संसार के प्राणी मात्र में रमण कर रुधिर को गति प्रदान कर प्राणों की रक्षा कराते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे उत्तर में विद्यमान होकर हमें ज्ञान के देने वाले हैं अतः सोम कहलाते हैं।  
ॐ ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता विरूध इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।13
हे सर्व व्यापक प्रभो आप नीचे की दिशा के देशों में विद्यमान जगत के स्वामी हैं. आप हरित रंग वाले वृक्षादी और बेलों के साधन द्वारा हमारे प्राणों की रक्षा करते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा नीचे की और विद्यमान हो , नम्र होकर हमारा पालन करने वाले हैं अतः विष्णु कहलाते हैं। 
ॐ ऊर्ध्वा दिग बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।14
हे महान प्रभो! आप ऊपर की दिशा की ओर के लोकों में व्यापक पवित्रात्मा, हमारे स्वामी और रक्षक हैं. आप वर्षा करके हमारी कृषि को सींचते हैं. जिससे हमारे जीवन का साधन खाद्यान्न उत्पन्न होता है.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे ऊपर की और विद्यमान होकर गुरुओ के भी गुरु परमगुरु हैं अतः बृहस्पति कहलाते हैं।  

संध्या का तीसरा भाग यहाँ पढ़ें

संध्या के शेष भाग के साथ अगली पोस्ट में फिर मिलते हैं।

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

रविवार, 9 जनवरी 2011

संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन)

वेद के अनुसार हमारे ऋषियों ने कहा है कि हमें प्रातः व सांय संध्या करनी चाहिए. एक दिन में दो बार संध्या की जाती है। 

जैसा कि आदि गुरु ब्रह्मा ने कहा है वास्तव में प्रत्येक वेद मन्त्र अनेक अर्थ रखता है. लेकिन जैसा हमें स्वामी दयानंद सरस्वती के वेद भाष्य में देखने को मिलता है, हम सामान्यतः वेद मन्त्र का एक ही अर्थ पाते हैं।   यद्यपि कुछ मन्त्रों का दो दृष्टियों से भी अर्थ देखने को मिलता है - आध्यात्मिक और सांसारिक. वास्तव में वेद मन्त्रों को समझने के लिए एक महान गुरु की आवश्यकता है. आजकल इस प्रकार के गुरु संसार में उपलब्ध नहीं हैं. यद्यपि गहन खोज करने पर कोई छुपा हुआ गुरु इस प्रकार का मिलना संभव तो है।  अब मैं आप को वैदिक संध्या के मन्त्रों की व्याख्या बताता हूँ. इस समय मैं निम्नलिखित मन्त्र ले रहा हूँ जो कि ब्रह्माण्ड की रचना पर आधारित हैं-
ॐ ऋतं च सत्यन्चाभि द्धातापसो अध्यजायत ततो रात्र्य जायत ततः समुद्रो अर्णवः
।।6।।
वेदों के प्रकाशक परमात्मा ने अपनी अनंत सामर्थ्य के कुछ भाग से कारण रूप प्रकृति से कार्य रूप जगत की रचना की और अपने सहज स्वभाव से जल कोष की रचना की ।
ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत अहोरात्रणि विदधद्विशस्य मिषतोवशी।।7।।
समुद्र रचना के पश्चात प्रभु ने ऐसी गति को उत्पन्न किया कि जिससे कि दिन रात और संवत्सर के बारह महीने उत्पन्न होते हैं।
ॐ सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्  दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथौ स्वः.।8।।

पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा।

इस संध्या के शेष भाग हिस्सों के रूप में मैं अगली पोस्टों में प्रकाशित करूंगा।
इस पोस्ट में मैंने आपको बताया कि कैसे इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई. ये मन्त्र संध्या के मुख्य अंग हैं. जिसमें हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।

संध्या का दूसरा भाग यहां पढ़ें

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

शनिवार, 8 जनवरी 2011

अतिथि देवो भव

जब एक मानव बिना किसी पूर्व सूचना के आता है तो उसको अतिथि कहते हैं. और हमारे साहित्य में अतिथि को देवता कहते हैं. एक अतिथि जो अध्यात्मिक ज्ञान से युक्त, सत्यवादी, सबका हित चाहने वाला, विद्वान व योगी हो, जब हमारे घर आये तो हमें उसका मधुर वाणी, भोजन और उसकी पसंद के विभिन्न पदार्थों से सत्कार करना चाहिए. हमें इन पदार्थों से उसे प्रसन्न करना चाहिए. उसके पश्चात हमें उससे वार्तालाप करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. और उसके उपदेश के अनुसार हमें अपने आचरण और कर्मों को बनाना चाहिए. एक राजा और अन्य गृहस्थी भी इस प्रकार के सत्कार प्राप्त करने योग्य होता है. एक अतिथि देवता कहलाता है. (देवता उसे कहते हैं जो कुछ दिया करता है) क्योंकि वह हमारे घर पर आने के पश्चात हमें प्रसन्नता, तरह तरह का ज्ञान व विभिन्न पदार्थ आदि दिया करता है इसलिए हम उसे देवता कहते हैं.
अब हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि हरेक अतिथि देवता नहीं होता. वह आदमी जो कुतर्की हो, सत्य ज्ञान का खंडन करने वाला हो, जिसका व्यवहार वेद और संविधान के अनुकूल न हो, झूंठा, जो बिल्ली की भांति हो जो कि अपना पेट भरने के लिए दांव लगाकर झट से चूहे को पकड़ लेती है, सत्कार पाने योग्य नहीं होते. हमें उनका अपनी वाणी मात्र से भी सत्कार नहीं करना चाहिए. हमें उन्हें कुछ भी नहीं देना चाहिए. और न ही उनसे मधुर वचन बोलने उचित हैं. क्योंकि अगर हम उनकी सेवा करते हैं और सोचते हैं कि वह अतिथि देव है तो हम अपनी उन्नति उसके बुरे जीवन से प्रभावित होकर खो सकते हैं. ये लोग उलटे कार्य किया करते हैं और अन्य लोगों को भी यहीं प्रेरणा दिया करते हैं. इसलिए इस तरह के लोग सत्कार प्राप्त करने के योग्य नहीं होते हैं. ऐसे लोग पाखंडी कहलाते हैं. हमें निम्नलिखित श्लोक को देखना चाहिए जो कि मनु स्मृति से लिया गया है. -
पाखंडिनो विक्रमस्थान वैडाल वृत्तिकान शठान. हेतुकान वाक़ वृत्तींश्च वान्ग मात्रेणपि नार्चयेत..

वास्तव में जिनका सत्कार नहीं किया जाता उनको कटु शब्द भी नहीं बोलने चाहिएं क्योंकि यदि हम उनपर क्रोध करते हैं तो उनका भविष्य में सुधार संभव नहीं है. इसलिए हमें मीठे शब्द ही हर किसी से बोलने चाहिएं. इसलिए ऐसा कहा है - 'समय के अनुकूल कर्म करना चाहिए' भगवान कृष्ण ने यह वाक्य अपने जीवन में सत्य कर के दिखाया है.

अब जब हम दूसरा पहलू देखते हैं तो हम समझ जाते हैं कि सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती. और स्त्रियों का तो यह बल भी है. अब मैं भगवान मनु महाराज जो हमारे सर्व प्रथम राजा थे, के बारे में एक कहानी लिख रहा हूँ-

एक बार राजा मनु प्रातः काल नदी में स्नान करने गए. जब उन्होंने स्नान के लिए अपना पात्र नदी में डुबाया तो जल के साथ एक मछली(बच्चा मछली) पात्र में आ गयी. मनु ने उसे देखा. वह अन्य बड़ी मछलिओं से काफी डरी हुई थी. उसने मनु से उन बड़ी मछलिओं से रक्षा करने की प्रार्थना की. उसने कहा कि वे उसे निगल जाएँगी (वास्तव में मनु एक योगी भी थे. और योगी अन्य जीवों की भाषा समझ सकता है. आयुर्वेद में ऐसी औषधियां भी हैं जिनके सेवन से अन्य प्राणियों की भाषा समझ में आने लगती है) अब मनु उसको अपने महल में ले गए. और उसके लिए तालाब बनाया. उसमें स्वच्छ जल भरवा कर उसे उसमें छोड़ दिया. कुछ समय पश्चात जब वह प्रबल और पर्याप्त बड़ी हो गयी तो उसको फिर से नदी में छुडवा दिया. जब वह समुद्र की और जा रही थी तो उसने भगवान मनु से कहा "हे राजन! आप बहुत दयालु राजा हो. जब आप को आवश्यकता होगी तब मैं भी आपकी सहायता अवश्य करूंगी. और उसने भविष्य वाणी की कि कुछ समय पश्चात जल प्लवन आयेगा. और सारी पृथ्वी जल मग्न हो जाएगी. तब मैं आप के पास आऊंगी . और मैं भी आपका जीवन इसी प्रकार बचाऊँगी जैसे आपने मेरी रक्षा की है. कुछ वर्ष बाद जल प्लवन आया. जैसा कि मछली ने वायदा किया था वह मनु के पास आ गयी. मनु ने अपने और अन्य कुछ जीवों के लिए एक बड़ी नौका तैयार कर रखी थी. उस समय पृथ्वी पर कहीं भी स्थल शेष न रहा. सिर्फ पर्वत ही शरणस्थल बन सकते थे. अब तक वह मछली बहुत बड़ी हो गयी थी. वह मनु के जहाज को ऊँची पहाड़ियों पर ले गयी. और मनु और उसके साथियों की रक्षा की. मनु जी ने कहा है, "आज तुम दूसरों की रक्षा करो, वे तुम्हारी बुरे समय में अवश्य ही रक्षा करेंगे." इसलिए हर आदमी को हर किसी की रक्षा करनी चाहिए. हम नहीं जानते कि कौन हमारे बुरे समय में हमारी सहायता करेगा.
इसी प्रकार सेवा करने से मानव का बल बढ़ता है. हम जो भी कार्य करते हैं वह निष्फल नहीं जाता. इसलिए हमें कुछ न कुछ धनात्मक करना ही चाहिए. और अपना समय व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए.
कुछ दुष्ट लोगों दो छोड़ कर हमें सभी से मधुर वचन बोलने चाहिएं.

मैंने उर्दू साहित्य भी पढ़ा है. इसमें लगभग यहीं कहानी कुछ अंतर के साथ पाई जाती है. इस साहित्य में यह कहानी 'नूह की कश्ती' नाम से पाई जाती है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

योग का चमत्कार: कृष्ण द्वारा

जैसा कि आप जानते हैं कि हमारे धर्म में बहुत से देवताओं की पूजा होती है. मेरे ज्ञान के अनुसार केवल एक ही महाशक्ति परमात्मा नाम की होती है. और अन्य इतनी अधिक विलक्षण आत्माएं होती हैं जो कि संसार में अपने महान कर्मों से देवता कहलाई जाती हैं. और भगवान के नाम से संसार इन्हें पुकारता है.
सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रभु तो केवल एक ही है. और मैं उसकी उसी प्रकार पूजा करता हूँ जैसे कि उन महान ज्ञानवान जिनकी आत्मा इतनी पवित्र और बलवान थी और उन्हें भगवान ने ऐसे चमत्कारिक गुणों को दिया था कि उनको भी भगवान नाम से जाना जाता है संसार में, ने की थी.
राम, कृष्ण, शिव और हनुमान आदि उस के इतने इतने निकट थे कि उसने उनको बहुत सी शक्तियां प्रदान की थीं. जो शक्तियां साधारण मानव के द्वारा प्राप्त करना संभव नहीं है. राम और कृष्ण की आत्माएं वह थीं जो कि मुक्ति के बिलकुल निकट की  थीं. उन्होंने संसार की  स्थिति सुधारने  के लिए ही जन्म धारण किया था. आप को यह जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि हमारी इस सृष्टि के प्रथम मनु ने ही भगवान कृष्ण के रूप में जन्म लिया था. 
वास्तव में कृष्ण जी दो प्रकार के योग में पारंगत थे. पहला तो वहीं  महान पवित्र योग और द्वितीय भृष्ट योग. प्रथम योग के द्वारा जो कि पूर्ण सत्य पर आधारित होता है, भगवान कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को विराट रूप दिखाया था. यह रूप कोई भी महान योगी दिखा सकता है. जिसमें वह अपने शरीर में ही पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देता है. 
अब मैं भृष्ट योग के प्रयोग से सम्बंधित एक कथानक प्रस्तुत कर रहा हूँ. जो हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है. और बिलकुल सत्य है.
एक बार पांडवों के वनवास के काल में माता द्रोपदी को एक बटलोही प्राप्त हुई(यह विज्ञान ही की खोज थी. यह उन्होंने एक ऋषि से प्राप्त की थी) [वास्तव में ऋषि वे पवित्र लोग होते हैं जो अध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही विज्ञानों में पारंगत होते हैं.] इस बटलोही की यह विशेषता थी कि उसमें तब तक भोजन बनना बंद नहीं होता था जब तक द्रोपदी स्वयं भोजन न कर ले . इस बटलोही की सहायता से युधिष्ठिर वनों में ही महान यज्ञ कर रहे थे. जहाँ बहुत से ऋषि मुनि व साधू भोजन करने और उनको दर्शन देने के लिए नित्य आया करते थे. जब दुर्योधन को इस यज्ञ के बारे में पता चला कि युधिष्ठिर साधुओं की भोजन के द्वारा सेवा किया करता है तो उसने विचारा  कि यह कैसे संभव है और ईर्ष्या से भर गया.  उसने अपने मन में एक योजना बनाई  और दुर्वासा मुनि को आमंत्रित किया जो कि अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे. इस गुण की वजह से वह बहुधा लोगों को श्राप दे दिया करते थे. उसने दुर्वासा का बहुत उच्च रीति से स्वागत किया. उनको बहुत अधिक सम्मान व विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने के पश्चात उसने उनसे एक वर माँगा. इतना अधिक सत्कार पाने के कारण ऋषि ने उसे एक वर दे दिया. और कहा वह जो चाहे मांग सकता है. अब दुर्योधन को युधिष्ठिर का यज्ञ भंग करने का मौक़ा मिल गया. उसने दुर्वासा से युधिष्ठिर के यज्ञ में जाने की प्रार्थना की. और कहा कि आप कृपा करके उन्हें श्राप दे दें. क्योंकि दुर्वासा ऋषि ने पहले ही उसको वचन दे दिया था इसलिए उन्हें उसको यह वरदान देना पड़ा.
अब, अपने शिष्य मंडल के साथ, दुर्वासा युधिष्ठिर के यज्ञ को देखने गया. रास्ते में वह कुछ साधुओं से मिला जो उस यज्ञ से भोजन व सत्कार प्राप्त करके लौट रहे थे. दुर्वासा ने साधुओं से भोजन का प्रबंध करने के स्रोत के विषय में पूछा. उन्होंने बताया कि द्रोपदी के पास एक ऐसा चमत्कारिक पात्र है कि जिसमें जब तक वह स्वयं भोजन नहीं कर लेतीं भोजन समाप्त नहीं होता. दुर्वासा ने पांडवों को श्राप देने की एक योजना बनाई. उसने योग के द्वारा जान लिया कि अब द्रोपदी ने भोजन कर लिया है और पांडव अब भोजन का प्रबंध नहीं कर पाएंगे यदि वह अचानक वहां पहुँच जाए. अब, वह अपने शिष्यों के साथ वहां पहुंचा  जहाँ द्रोपदी अकेली ही थी क्योंकि किसी कारण वश पांडव कहीं बाहर चले गए थे. द्रोपदी ने उन सबका मधुर वचनों द्वारा स्वागत किया और पूछा, "मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकती हूँ?" दुर्वासा को अवसर मिल गया और उसने कहा, "हे पुत्री! हम बहुत भूखे हैं. जैसा कि तुम यज्ञ कर रहे हो व प्रतिदिन बहुत से साधुओं को भोजन भी कराते  हो. हमें भी कुछ भोजन चाहिए. यदि संभव हो तो हमें भी कुछ भोजन प्रदान करो." द्रोपदी को समझते देर न लगी कि दुर्वासा  का भोजन मांगने का कुछ और ही कारण है. क्योंकि वे इतनी महान थीं कि उनको अपने सात जन्मों का ज्ञान था. कुछ सोचने के पश्चात उसने उत्तर दिया, "महाराज! आप नदी पर स्नान कर आइये तब तक मैं आपके लिए भोजन का प्रबंध करती हूँ."
तब सभी नदी पर स्नान के लिए चले गए. अब द्रोपदी ने दुर्वासा के भीतर के दुष्ट विचारों का अनुमान लगा लिया कि वह पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह शस्त्र गार में प्रविष्ट हो गयीं और एक खंजर आत्महत्या के लिए उठा लिया. जिससे कि दुर्वासा के श्राप से पांडवों को बचा सकें.
परमात्मा को धन्यवाद! तभी भगवान कृष्ण वहां पहुँच गए. उन्होंने उनसे पूछा "प्यारी बहना! यह क्या कर रही हो?" द्रोपदी ने उत्तर दिया,"हे कृष्ण! दुर्वासा यहाँ पर पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह भोजन मांग रहा है और वह मेरे पास अब है नहीं. वह निश्चित रूप से उन सबको श्राप दे देगा. इसी कारण से मैं मृत्यु को प्राप्त हो रही हूँ."
सारी स्थिति समझने के पश्चात वे बोले, "द्रोपदी! मैं बहुत भूखा हूँ. मुझे वह पात्र लाकर दो."
"हे भ्राता! आप विनोद कर रहे हो. मेरे पास भोजन का एक अंश भी नहीं है."
"कृपया वह पात्र मुझे लाकर तो दो."
उसने उन्हें वह पात्र लाकर दे दिया. कृष्ण ने उसमें से एक शेष चावल का दाना ढूंढ़ कर निकाला. उन्होंने उसे खा लिया. और डकार लेते हुए बोले कि अब मेरी भूख शांत होने वाली है. और भृष्ट योग के द्वारा उन्होंने उस चावल का प्रभाव उन आगंतुकों पर डाला.
अब पांडव भी लौट आए. उन्होंने कृष्ण से उनके परिवार का कुशल मंगल पूछा. उसके पश्चात कृष्ण ने भीम से नदी के किनारे पर जाकर उन सभी को भोजन के लिए बुला लाने  को कहा. उन्होंने उससे गदा भी साथ में लिए जाने को कहा. और बताया कि अगर वे आने को मना करें तो गदा के भय से लाओ. जब भीम नदी पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सभी नदी के किनारे पर लेटे  हुए हैं. क्योंकि अब उनको किसी प्रकार की भूख शेष नहीं थी. वे तृप्त थे. यह सब कुछ कृष्ण ने ही भृष्ट योग की सहायता से किया था. भीम ने दुर्वासा से प्रार्थना की कि वे भोजन करने चलें जैसा कि उन्होंने प्रार्थना की थी. दुर्वासा एक ऋषि थे, और ऋषि कभी भी किसी से नहीं डरता, परन्तु क्योंकि उसके मन में पांडवों को श्राप देने का पाप छिपा था, वह तुरंत अपनी शिष्य मंडली के साथ भीम के साथ हो लिया. भीम गदा लेकर पीछे चल रहे थे. अब वह भय से व्याकुल होकर पांडवों की कुटिया की और चल दिए. जब दुर्वासा वहां पहुंचे, कृष्ण ने द्रोपदी से कहा कि उनसे पूछो कि क्या खायेंगे. दुर्वासा को आसन देने के पश्चात द्रोपदी बोलीं," हे भगवन! आप भोजन में क्या खाना पसंद करेंगे?" उसने सोचा कि यद्यपि मुझे भूख नहीं है लेकिन मुझे कुछ न कुछ तो माँगना पड़ेगा क्योंकि पांडवों को श्राप तो देना ही था और उसे पता था कि उनके पास भोजन है ही नहीं. इसलिए उसने जानबूझ कर अन्य ऋतु का फल 'आम' माँगा.
ऐसा सुनने के पश्चात् वह कृष्ण के पास आयीं और बोलीं कि वह आम मांग रहा है. तथा बोलीं कि अब वह अवश्य ही पांडवों को श्राप दे देगा क्योंकि आम इस ऋतु में पैदा ही नहीं होता. और इसलिए उसको हम आम दे नहीं पाएंगे."
कृष्ण ने उनको सांत्वना दी और कहा "उनसे पूछो कि किस तरह का आम लेंगे - कच्चा या पक्का?"
द्रोपदी वहां गयी और दुर्वासा से यहीं पूछा यह सुनकर उसे संदेह हुआ कि शायद आम उनके पास हैं. इसलिए उसने सोचा कि उसे ऐसा आम मांगना चाहिए जो उनके पास न हो. उसने कुछ सोचने के पश्चात कहा, "मुझे दोनों ही चाहिएं - कच्चा भी और पक्का भी."
द्रोपदी कृष्ण के पास पहुँचीं "वह दोनों प्रकार के आम मांग रहे हैं ."
कृष्ण ने द्रोपदी से कहा "उनसे कहो कि अपना मुख ऊपर की और करके विराजमान हो जाएँ. दोनों तरह के आम आने वाले हैं." यहीं शब्द द्रोपदी ने दुर्वासा से कह दिए.
दुर्वासा ने अपना मुंह ऊपर की ओर  खोल लिया.
अब भृष्ट योग के द्वारा कृष्ण भगवान ने क्या किया? -
दुर्वासा के आसन के समीप एक आम का वृक्ष पैदा होकर बढ़ना शुरू हो गया. धीरे धीरे यह एक बहुत बड़ा वृक्ष बन गया. अब उसपर फल आने प्रारंभ हो गए. कुछ कच्चे रह गए और कुछ पक गए. फिर प्रचंड वेग से वायु चलनी प्रारंभ हो गयी. और फल गिरने शुरू हो गए. जब पका आम उसके मुख पर गिरता तो उनका मुख पके गूदे से सन जाया करता. और जब कच्चा आम गिरता तो उसकी चीख निकल जाया करती. और उसका मुंह सूज कर मोटा हो गया. अब वह पूर्ण रूप से आतंकित हो गया. और दर्द के मारे  द्रोपदी माता से बोला, "हे मेरी पुत्री! मेरी मदद करो."
कृष्ण द्रोपदी से बोले कि उनसे पूछ कर आओ कि उन्हें कुछ और तो नहीं चाहिए?
जब द्रोपदी ने दुर्वासा से ऐसा पूछा तो वह बोले, "हे पुत्री! मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे प्राणों की रक्षा करो."
कुछ समय पश्चात् कृष्ण ने अपनी योग माया समाप्त कर दी.
अब दुर्वासा उनको श्राप देना भूल गया और स्थान छोड़ कर चला गया. और मन ही मन द्रोपदी और पांडवों को आशीर्वाद दिया. जब वह आश्रम की और जा रहे थे तो मार्ग में उसने अपने शिष्यों से कहा, "हे पुत्रों! हमें दुर्योधन जैसे अधम को किसी भी प्रकार का वचन नहीं देना चाहिए था . ये पांडव व द्रोपदी बहुत ही उदार और पवित्र हैं. मैंने दुर्योधन के कहने पर इन्हें श्राप देने का निश्चय कर लिया था. यह ही मैंने ग़लत किया. मुझे अनुमान है कि इस बुरे कार्य से मेरे सात जन्मों के पुण्य समाप्त हो गए है.
इसलिए हे पाठकों! हमें वास्तविक योग को जानना चाहिए और किसी भी दुष्ट की सहायता नहीं करनी चाहिए. कृष्ण जी ने  योग के द्वारा बहुत से चमत्कार किये. यह योग महान वस्तु है. आजकल वास्तविक योग के स्थान पर बहुत सी भ्रामक प्रथाएँ चल पड़ी हैं.
मैं आपको अपने बारे में एक बात बता रहा हूँ. मैंने भी योग में बहुत कुछ उपलब्धि प्राप्त की है. जो कि साधारण मनुष्य के लिए चमत्कारिक है. लेकिन यह संभव है. मैं योग को महान मानता हूँ. क्योंकि यह मेरा अपना अनुभव भी है.
अगले ब्लॉग में फिर मिलते हैं.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

शान्ति कैसे पायें द्वितीय

जब नारद मुनि को ब्रह्मचर्य की महत्ता बताई गयी तो उन्होंने पुनः प्रश्न किया "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि ब्रह्मचर्य से बढ़कर भी कोई पदार्थ है?"
अन्न
नारद द्वारा इस प्रकार पूछने पर सनत कुमार ने कहा, "हे नारद! अन्न ब्रह्मचर्य से बढ़कर है. अन्न और इस वनस्पति जगत की याचना करो. अन्न हमें ओज और ब्रह्मचर्य प्रदान करता है. अन्न हमारे लिए अमूल्य पदार्थ है. सदा अन्न की याचना करनी चाहिए.
नारद मुनि ने कहा, "क्या अन्न ही सबसे ऊँचा है?"
कामधेनु(पृथ्वी माता)
महर्षि सनत कुमार बोले, "नहीं नारद! पृथ्वी अन्न से भी बड़ी है. पृथ्वी की याचना करो. वह हमारी माता है. हमारी दो प्रकार की माताएं होती हैं. एक तो भौतिक माता जो हमारी जननी है. और दूसरी पृथ्वी माता है. (जो हमें गर्भाशय से मृत्यु पर्यंत पालती है) जब हम भौतिक माता के गर्भाशय से पृथक होते हैं, हम पृथ्वी माता के गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाते हैं. जिस प्रकार माता के गर्भ में हम भोजन प्राप्त करते हैं और लोरियों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं, हम विभिन्न वनस्पतियों दे द्वारा माता पृथ्वी के गर्भ में भोजन प्राप्त करते हैं. वह हमारा पालन करती है. उसे धेनु कहते हैं(कामधेनु एक ऐसी गाय है जो ऋषि वशिष्ठ से सम्बंधित थी और सम्पूर्ण कामना पूर्ण कर देती थी.) इस पृथ्वी को अन्य बहुत से नामों से पुकारा गया है. हे नारद! यह पृथ्वी हमारी माता है. हम इसके गर्भ में रहते हैं. हमें पृथ्वी की याचना करनी चाहिए. हमें उसे वैज्ञानिक खोजों के द्वारा जानना चाहिए. यह पृथ्वी इतनी भोली है कि यदि कोई वैज्ञानिक बनना चाहता है तो इसके लिए वैज्ञानिक बनना संभव है. यह अध्यात्मिक वैज्ञानिक को शांति प्रदान करती है. और भौतिक वैज्ञानिक को ज्ञान. हे माता पृथ्वी! तुम निश्चित ही कामधेनु जो. तुम हमारी इच्छाओं को पूर्ण करती हो. तुम देवी हो. वेदों ने तुम्हें इस नाम से पुकारा है.
जो लोग पृथ्वी के गर्भ से रत्नों को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें वह रत्न प्रदान करती है. जिस महान पदार्थ की मानव खोज करता है वह उसे पा लेता है. हे माता पृथ्वी! हम विद्युत् उर्जा की खोज करते हैं. तुम हमें यह देने में बहुत उदार हो. हम एक अनुशासित समाज के बारे में विचारते हैं तुम हमें पवित्र राष्ट्र प्रदान कर देती हो.
हे पृथ्वी! हम निश्चय आप के गर्भ में हैं. अपनी जननी माँ के गर्भ से हम आपके गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं. जहाँ हम इस महान संसार सागर को पवित्र कर्म करते हुए पार किया करते हैं.
पृथ्वी के बारे में ऐसा सुनने के बाद नारद मुनि ने सनत कुमार से पूछा, " भगवन ! में यह जानना चाहता हूँ कि पृथ्वी से बड़ा भी कुछ है?"
अग्नि तत्व
सनत कुमार ने उत्तर दिया, "पृथ्वी से बड़ा यह अग्नि तत्व है. जो कि सारे ब्रह्माण्ड को चला रहा है. जिसने सारे कायनात में चेतना का प्रसार कर रखा है. अग्नि तत्व के कारण वर्षा होती है. जिससे हर प्रकार का अन्न पैदा होता है. जब यह समुद्र पर कार्य करती है तो वाष्प बनती है. जिससे बादल बनते हैं. जो वर्षा का कारण होते हैं. वर्षा से वनस्पति जगत उत्पन्न होता है. जिससे हमें ब्रह्मचर्य प्राप्त होता है. जब ब्रह्मचर्य को सुरक्षित और पवित्र बनाया जाता है तो स्मृति तीव्र होती है. जब स्मृति तीव्र होती है तो अंतःकरण पवित्र और शुद्ध होता है. जिससे बुद्धि में पवित्रता आती है. और फिर मन भी पवित्र होता है. जब मन शुद्ध होता है तो वाणी पवित्र बन जाती है. और जब वाणी यथार्थ होती है तो हम इस संसार की जानकारी करने में सक्षम हो जाते हैं.
इसके पश्चात नारद ने पूछा, "भगवन! इस अग्नि तत्व से बड़ा क्या है?"
आकाश(अंतरिक्ष)
सनत कुमार बोले, "हे नारद ! अंतरिक्ष अग्नि से महान है. हम जो भी शब्द उच्चारण करते हैं वह इस अंतरिक्ष में विचरण करते रहते हैं. अंतरिक्ष से इनको लिया जाता है और अपनी बुद्धि के अनुसार इनको ग्रहण किया जाता है. मेधा बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है. अंतरिक्ष हमारी बुद्धि को बढ़ने वाला है. यह हमारे भीतर जीवन को प्रबल करता है. इसी से वायु को गति मिलती है. इसी में अग्नि भी विद्यमान रहती है.
इस पर नारद मुनि ने पूछा, "भगवन! अंतरिक्ष से बड़ा क्या हो सकता है?"
अम्बर
सनत कुमार बोले, "हे नारद! यह अम्बर अंतरिक्ष से बड़ा है. देखो कितने सारे मंडल जैसे चन्द्र मंडल, सूर्य मंडल, ध्रुव मंडल, सप्तर्षि मंडल, भू, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम मंडल. इसी प्रकार ऐसे मंडल जो आरुणी, अगस्त्य और अचंग आदि नामों से जाने जाते हैं. सभी इस अम्बर के भीतर समाहित हैं. और उसका प्रभाव अपने अपने लोकों में रखते हैं.
नारद मुनि तब बोले, "भगवन! इस अम्बर से ऊँचा क्या है?"
प्राण
सनत कुमार ने कहा, "हे नारद! प्राण अम्बर से ऊँचा है. यह प्राण समस्त जीवों में व्याप्त है. प्राण ही संसार को चला रहा है. यह आत्मा के सानिध्य में गमन करते हैं. ये प्राण सारी प्रकृति में व्याप्त हैं. हे नारद! तुम प्राणों की याचना करो. ये प्राण तुम्हें शांति प्रदान करेंगे.
परमात्मा(सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च)
प्राणों तक जानने के पश्चात नारद मुनि शांत हो गए और अब वह आत्मिक शांति को प्राप्त होने लगे. तब सनत कुमार बोले, "हे नारद! प्राणों से बड़ा भी एक पदार्थ है और वह सर्वोच्च परमात्मा है. वह ही है जो प्राणों का प्राण है. और जो हमारी आत्मा का प्रेरक है. हे नारद! यदि तुम अध्यात्मिक शांति चाहते हो तो तुम उसकी शरण में जाओ.
नारद मुनि शान्ति को प्राप्त हो गए. और आश्चर्य करने लगे कि उन्होंने कितनी प्रेरणा उस मुनि से प्राप्त की जिन्होंने उन्हें अध्यात्मिक और भौतिक वाद से सम्बंधित इतनी सारी जानकारी दी.

इसलिए प्यारे पाठकों! यह नारद मुनि और सनत कुमार के संवाद का अंत हो गया है. यह संवाद भौतिक और अध्यात्मिक वाद दोनों ही क्षेत्र में बहुत प्रेरणा प्रद है. अगले ब्लॉग पोस्ट में पुनः मिलते हैं.
धन्यवाद
अनुभव शर्मा
इस पोस्ट को इंग्लिश में पढ़ें.

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

दुष्ट को नमन और शान्ति कैसे पायें प्रथम

हमें अपने प्राणों को नमन करना चाहिए, न सिर्फ प्राणों को अपितु दुष्टों को नमन. ठगों को नमन. परन्तु ठगों को कैसे नमन करें? उनको हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करना चाहिए. यदि उसकी दुष्टता या ठगी सिद्ध हो जाए तो उसे डंडे से नमन करना चाहिए और यह सिद्ध कर देना चाहिए कि हम अपने स्थान पर दृढ हैं. उस समय तुम्हें उन्हें डंडे से नमन करना चाहिए.
वेदों में वनराज का नमस्कार भी स्वीकार किया गया है. परन्तु सिंह इसे दो तरीके से करता है. जो व्यक्ति आत्मा को जानता है वह प्रेम के साथ नमस्कार स्वीकार करता है.
एक बार लोमश मुनि कदली वनों से गुज़र रहे थे. शेर आकर उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. उस आत्मा के बल की क्या सीमा है. जिसके समक्ष सिंह भी श्रृद्धा से अपना शीश झुका देते हैं. इसी प्रकार कि घटना हमें माता गार्गी के जीवन से मिलती है एक बार वह महर्षि याज्ञवल्क्य से मिलने जा रही थीं. रास्ते  में एक शेर ने उनको नमन किया और उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. वेदों में नमस्कार भिन्न सन्दर्भों में आया है. हमारे ऋषि मुनियों ने जिन्होंने वेदों का स्वाध्याय किया है इसका सुन्दर तरीकों से वर्णन किया है. प्राणों को नमन, हे प्राण! तुम पवित्र हो और महान हो. तुम हमारे शरीर के भीतर रमण करते हो. हम महानता चाहते हैं. आज हम उन प्राणों का आह्वान करते हैं जिसके द्वारा हमारे योगी अपनी बौद्धिक क्षमताओं को वश में करते आये हैं और मूलाधार से ब्रह्मरंध्र में रमण करते हुए योगिक पूर्णताओं को उन्होंने प्राप्त किया है. आज हम उन प्राणों कि याचना करते है.
हे पाठकों! हमें निस्वार्थ होना पड़ेगा. हमें परमात्मा को अनुभव करना चाहिए. हमें अपनी तुच्छताओं को त्यागना पड़ेगा. यदि हमारे मस्तिष्क में नाना बुरे विचार हैं, स्वार्थ है और साथ साथ हम भगवान की पूजा भी करते हैं तो यह किसी लाभ का नहीं है. यह तभी लाभदायक होगा जब हम निस्वार्थी होकर परमात्मा की गोद में जाने का प्रयत्न करेंगे. आज हमें अपनी अंतरात्मा को पवित्र करने की आवश्यकता है.
अब मैं एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ जो कि महर्षि  श्रृंगी (पूज्यपाद ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी), जो मेरे अध्यात्मिक गुरुदेव हैं, के प्रवचनों से ली गयी है. यह नारद मुनि व सनत कुमार संवाद पर आधारित है.
एक बार किसी कारणवश देवर्षि नारद को अशांति छा गयी. उन्होंने सोचा कि उन्हें इस को समाप्त करने के लिए किसी अन्य स्थान को गमन करना चाहिए. अपना स्थान छोड़ने के बाद वे महर्षि पापड़ी  मुनि महाराज के पास गए. जिन्होंने उनका यथायोग्य स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे शांति को प्राप्त हैं? नारद मुनि ने कहा, "भगवन! शांति कहाँ है. मुझे आज अज्ञान छा गया है. मुझे आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हो रही है. मुझे इसकी प्रबल आवश्यकता है." इस पर महर्षि पापड़ी मुनि महाराज ने कहा, "मेरे मंतव्य से आप को सनत कुमार के पास जाना चहिए. वहां आप निश्चित रूप से अध्यात्मिक शांति को प्राप्त कर लेंगे." ऐसा आदेश पाकर देवर्षि नारद वहां से चल दिए और महर्षि सनत कुमार के पास पहुंचे. महर्षि ने उनका ऊंचा स्वागत किया और उनको ऊँचा आसन प्रदान करते हुए विराजमान होने की प्रार्थना की. नारद मुनि ने आसन ग्रहण कर लिया. महर्षि सनत कुमार ने जानना चाहा, "हे देवर्षि नारद! आपका ह्रदय मग्न प्रतीत नहीं हो रहा है. आपका विनोदी स्वभाव कहाँ चला गया?" इसपर नारद मुनि बोले," महाराज! आज मैं आपके चरण वंदन के लिए आया हूँ जिससे मैं आत्मिक शांति प्राप्त कर सकूँ." उन्होंने पूछा आपको आत्मिक शान्ति क्यों प्राप्त नहीं हो रही है?" नारद ने इस बात का उत्तर देने में असमर्थता जताई. सनत कुमार ने पूछा "मुझे बताओ कि ज्ञान की कौन सी शाखाओं को आपने जाना है? और क्या क्या नहीं जाना?" उस समय नारद ने उत्तर दिया, "भगवन! मैंने दार्शनिकता के ६ भागों, चार वेद, उपवेद, गणित और अन्य सभी विज्ञानों का अध्ययन किया है. परन्तु मैं आत्मिक शांति प्राप्त करने में असमर्थ हूँ.
आत्मिक शांति का मार्ग
महर्षि नारद से यह सुनकर महर्षि सनत कुमार ने कहा, "हे नारद!यह ज्ञान बहुत ऊँचा है. केवल यह ही तुम्हें ऊँचा बना देगा. ज्ञान बहुत ग्रहणीय और विचित्र होता है. इसमें गहनता से उतरो यह तुमको संसार से एक रस कर देगा.
नारद ने पूछा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या ज्ञान से बढ़कर भी कोई पदार्थ है संसार में?"
सत्य
ऐसा पूछने पर महर्षि सनत कुमार बोले, "हाँ एक पदार्थ इससे भी बड़ा है. और यह वाणी है. आज तुम्हें वाणी की अर्चना करनी चाहिए. सत्य बोलो. जो कुछ भी तुम बोलो वह सत्य होना चाहिए. सत्य बोलने से वाणी सबल और प्रभावशाली बन जाती है. महर्षि श्रृंगी ने ८४ वर्ष तक एक भी शब्द मिथ्या उच्चारण नहीं किया. वह जो भी कह देते थे, हो जाता था. यदि वे किसी को मृत्यु प्रदान कर देते थे, तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता था. अरे नारद! महर्षि अत्री ने अपने जीवन में १२० वर्ष सत्य का पालन किया. यदि वह किसी पक्षी से आने को कहते थे तो वह उनके पास आ जाता था. हे नारद! यह वाणी बहुत महान है. इसमें कभी मिथ्यावाद न मिलाओ, तो यह वाणी बल व प्रभाव से युक्त हो जाएगी. यह ऐसा पदार्थ है कि यह तुम्हें भगवान तक ले जा सकती है. यह एक ऐसा साधन है कि यह इस संसार सागर से भी पार ले जा सकती है. तुम वाणी की साधना करो. सत्य बोलो.
देवर्षि नारद ने कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या कोई वस्तु वाणी से भी बढ़ कर है?"
मन
सनत कुमार ने बताया,"एक ऐसा पदार्थ भी है जो सत्य से भी बढ़कर है. और वह मन है. यह मन बहुत अमूल्य है. यह वायु से भी तीव्र गमन करता है. यह मन तुम्हें इन्द्रलोक में ले जा सकता है. इस मन को स्थिर करो. यह तुम्हें ऊँचाइयों पर पहुंचा देगा.
इस सन्दर्भ में गंभीर विचारकों ने विश्लेषण किया है कि यदि कोई मानव सुन्दरता को देखता है, वह चक्षुओं से नहीं देखता, बल्कि वह मन से देखता है. ऑंखें, पुतलियाँ, तन्मात्राएँ और पीला पटल आदि तो सभी निर्जीव और यंत्र कि भांति है. मन ही है जो उसको महसूस करता है. यदि यह मन स्थिर है तो वह सही निर्णय देगा परन्तु यदि यह मन चलायमान है तो यह कुदृष्टि में परिवर्तित हो जायेगा. यही मन मानव की मृत्यु का कारण बन जाता है. एक अलंकार मेरे मन में आया है. सनत कुमार ने यह नारद को बताया था. यह महान रूपक है.
एक धनी व्यक्ति था. एक नौकर उसके पास नौकरी के लिए आया. सेठ ने पूछा, "तुम क्या वेतन पसंद करोगे?"  सेवक बोला, "श्रीमान! मुझे कोई वेतन नहीं चाहिए परन्तु मेरा एक सिद्धांत है. जब मेरे पास करने के लिए कोई कार्य शेष नहीं रहेगा तो मैं तुम्हें मृत्यु को प्राप्त करा दूँगा." सेठ उसे अपनी सेवा में रखने को तैयार हो गया और उसको एक के बाद एक कार्य देने प्रारंभ कर दिए. जैसे ही वह उसे कार्य सोंपता वह तुरंत उसे कर दिया करता. कुछ समय पश्चात् सेठ को चिंता हो गयी क्योंकि जल्दी ही उसने पाया कि उसके पास देने के लिए अन्य कार्य उस विलक्षण सेवक के लिए शेष नहीं है.  एक बार वह एक मार्ग से जा रहा था. वहां उसे एक बुद्धिमान मिला जिसने उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा. उस धनिक ने सारी बात उस बुद्धिमान को बताई और अपने ही सेवक के द्वारा मृत्यु प्राप्त होने के भय से अवगत कराया क्योंकि जल्दी ही सेवक के लिए कोई कार्य शेष नहीं रह जायेगा. इस पर उस बुद्धिमान ने राय दी, "भैया, तुम उसे अपने ही कामों में क्यों लगाये हुए हो? उसे संसार के कार्यों में लगा दो." वह सलाह मानकर वह धनिक अपने घर लौट आया और उसने वहीँ किया. उसने अपने नौकर से संसार के शुभ कार्यों में व्यस्त होने को कह दिया. नौकर को इस प्रकार के कार्यों की कोई सीमा नहीं प्राप्त हुई और धनिक की रक्षा हो गई. यहीं स्थिति मानव के मन की है. यदि हम अपने मन को संसार के शुभ कार्यों और भगवान के चिंतन में लगाये रखते हैं तो हम सुरक्षित रहते हैं. परन्तु जैसे ही हम ने उसको स्वतंत्र किया यह महान अनर्थ करने लगता है. और विनाश कि गर्त में धकेल देता है.
नारद मुनि ने पूछा, "भगवन! मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या अन्य कुछ भी मन से ऊँचा है?"
बुद्धि
सनत कुमार ने कहा, " हे नारद! बुद्धि मन से ऊँची है. यह परमात्मा की अमूल्य देन है. तुम परमात्मा से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें बुद्धि प्रदान करें जिससे कि हम इस संसार के बारे में अच्छी प्रकार निर्णय ले सकें.यह मन सारी वासनाओं को बुद्धि के समक्ष नियुक्त कर देता है. बुद्धि ही निर्णय दिया करती है कि क्या क्या पदार्थ है. इसलिए देखो! बुद्धि हमारे जीवन की प्रेरक है. हमें बुद्धि से कार्य लेना चाहिए. यह आत्मा तीन प्रकार की बुद्धियों मेधा, ऋतंभरा और प्रज्ञा, को प्राप्त करने के बाद उस महान प्रभु से मिला करती है. और मुक्ति को प्राप्त करती है. आजकल हम अपनी बुद्धिओं को विकसित करने पर विचार नहीं कर रहे हैं. इसके पश्चात नारद मुनि पुनः बोले, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या बुद्धि से बढ़कर भी कुछ है?"
अंतःकरण
सनत्कुमार ने कहा, "हे नारद! अंतःकरण बुद्धि से बड़ा है. तुम्हें यह अंतःकरण पवित्र बना लेना चाहिए. ऐसा करने पर तुम्हारा जीवन भी पवित्र हो जाएगा. इस छोटे से अंतःकरण में यह परमात्मा का सारा ब्रह्माण्ड समाहित हो जाता है. अंतःकरण महान होता है. अपनी बुद्धियों को अंतःकरण में विलय करो.
पुनः देवर्षि नारद बोले, "भगवन! मैं अंतःकरण की अधिक व्याख्या नहीं चाहता. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसा कोई और पदार्थ है जो अंतःकरण से भी बढ़कर है?"
स्मृति
अब सनत कुमार बोले, "हे नारद! स्मृति अंतःकरण से श्रेष्ठ है. अन्य बातें त्याग कर तुम मेरे ही जीवन को देख लो मैंने जिन वेद मन्त्रों का लाखों वर्ष पूर्व अध्ययन किया था अब पुनः अपने कर्मों के अनुसार तुम्हारे समक्ष बोलने में सक्षम हूँ. हमारे बहुत से जन्मों के संस्कार अंतःकरण में अंकित रहते हैं. इसके जाग्रत होने पर स्मृति आती है.
इसके पश्चात नारद मुनि ने आगे कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ स्मृति से भी बढ़कर श्रेष्ठ क्या है?"
ब्रह्मचर्य
सनत कुमार ने कहा, "ब्रह्मचर्य स्मृति से महान है. ब्रह्मचर्य से प्रतिभा और ओज मिलता है. यह मानव को परमात्मा तक ले जाता है. तुम्हें ब्रह्मचारी होना चाहिए. यदि हम ब्रह्मचर्य नहीं रखते तो हमारा जीवन केवल नाम मात्र है. हे नारद! माता गार्गी ने भी ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत ऊँचा बोला है. उन्होंने स्वीकार किया है, "ब्रह्मचारी संसार में एक महामानव होता है. वह सूर्य के समान तेजवान होता है. वह मृत्युंजय कहलाता है. वह रूद्र कहलाता है." हमें ब्रह्मचर्य संग्रहीत करना चाहिए क्योंकि यह मृत्यु को भी विजय कर लेता है. लोमश मुनि ने जीवन भर ब्रह्मचर्य धारण किया था. वह कितने वर्ष जिए और फिर मुक्ति भी प्राप्त कर ली. महर्षि अगस्त्य, ब्रह्मचर्य के महान धारक ने समुद्र को केवल तीन आचमन में पीने की क्षमता प्राप्त की. आज के मानव ने इस तथ्य के अन्तर्निहित अर्थ को नहीं जाना. मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मा ने मुझे अगस्त्य की इस महानता के बारे में बताया था. वे तीन आचमन क्या हैं? वे ज्ञान, कर्म और उपासना हैं. और समुद्र यह महान संसार है.
शान्ति कैसे प्राप्त करें का द्वितीय भाग मैं बाद में प्रकाशित करूंगा. अगले ब्लॉग में नारद मुनि और सनत कुमार संवाद का द्वितीय भाग लेकर मैं फिर उपस्थित होऊंगा.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

मनुष्य जीवन के दो पक्ष

एक महीने में दो पक्ष होते हैं - कृष्ण और शुक्ल. कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा लगातार दिन प्रतिदिन घटता चला जाता है. और अंत में पूर्णतः अदृश्य हो जाता है. लेकिन पुनः शुक्ल पक्ष आता है और यह बढ़ना शुरू होता है और अंत में पूर्ण कलाओं को प्राप्त कर लेता है. इसी प्रकार मानव के जीवन में भी अन्धकार का काल आता है. परन्तु तब उसे सद्गुणों का मार्ग नहीं त्यागना चाहिए और सभी विसंगतियों को सहना चाहिए जो भी उसके समक्ष आती है. और तब निश्चित रूप से वह दिन भी आयेगा जब उसका अंधकार का काल समाप्त हो जायेगा और वह अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ संसार में चमकेगा.
मैं दो पक्षों के विषय में कह रहा हूँ - अन्धकार का पक्ष और प्रकाश का पक्ष. इस सम्बन्ध में मैं एक कहानी प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो त्रेता युग की है जिसे मैंने अपने गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी कि पुस्तक में पढ़ा है.
एक बार त्रेता युग में जब राजा रघु का राज्य था, बहुत समय तक वृष्टि नहीं हुई. पृथ्वी सूखने लगी और गर्मी बहुत बढ़ गयी. तथा अकाल पड़ गया. राजा बहुत चिंतित हुए. उसी समय महर्षि उदांग ने साकल्य एकत्रित करना शुरू किया. उनहोंने आवश्यक पदार्थ लगभग १५ दिवस तक एकत्रित किये. और तब उस साकल्य से एक महान यज्ञ करना प्रारंभ किया. ज्यों ही यज्ञ पूर्ण हुआ देवता प्रसन्न हो गए और वृष्टि प्रारंभ हो गयी.
अब ऐसा हुआ कि नेवला(नवल ऋषि) जो कि वनों में रहता था, यज्ञ के पूर्ण होने पर वहां पर आया और अपने शरीर को यज्ञ शेष में डुबाया. परन्तु जल पर्याप्त न होने कि वजह से उसका केवल आधा भाग स्वर्ण का हो पाया. तब नेवले ने अपने दिनों को इस आशा में व्यतीत करना शुरू कर दिया कि किसी और काल में भी ऐसा यज्ञ होगा और उस यज्ञ शेष में डूबने का मौक़ा मिलेगा. जिससे कि उसका शेष आधा भाग भी स्वर्ण का हो जायेगा. इसी आशा में दिन गुज़रते गए और द्वापर युग आ गया. द्वापर में महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया. यह यज्ञ महान विचित्र था. सभी राजाओं को वहां निमंत्रित किया गया था. उस यज्ञ की महानता का वर्णन करना असंभव है. नेवला भी वहां आया और उसने अपने को यज्ञ शेष में डुबाया. लेकिन उसका शेष भाग स्वर्ण का नहीं हो पाया. तब नेवला दुखी हो गया. महाराज युधिष्ठिर ने कहा, "अरे नेवले! आप दुखी क्यों हैं? नेवले ने उत्तर दिया, "हे महाराज! एक बार उदांग ऋषि ने एक यज्ञ किया था जो कि इतना बड़ा भी नहीं था जैसा कि तुम्हारा है लेकिन फलस्वरूप वृष्टि हुई थी. मैंने वहां यज्ञ शेष में अपने को डूबने का प्रयत्न किया था, लेकिन यज्ञ शेष पर्याप्त न होने के कारण मेरा आधा भाग ही उसमें डूब सका और वह स्वर्ण का हो गया. हे महाराज! आपने इतना बड़ा यज्ञ किया है. मैं यह आशा करता था कि मेरा शेष भाग भी स्वर्ण का हो जायेगा यदि मैं अपना शरीर इस यज्ञ शेष में डुबा लूँ. मैंने ऐसा ही किया, मैंने अपना शरीर इस यज्ञ शेष में डुबाया परन्तु मुझे निराशा ही हाथ आई. मेरा शेष भाग स्वर्ण का न हो सका. मेरे दुःख का यहीं कारण है. मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि यह किस प्रकार का यज्ञ है? जिसने मेरे आधे शेष शरीर को स्वर्ण का न बनाया.
यह सुनकर युधिष्ठिर बहुत व्याकुल हो गए. उनकी चिंता देखकर नेवले ने उनसे पूछा, "हे महाराज! आप व्याकुल क्यों हैं?" युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "मेरी चिंता का कारण यह है कि मैंने इतना बड़ा यज्ञ किया है लेकिन यह आपके शेष आधे भाग को स्वर्ण का न कर सका. इसलिए यह प्रतीत होता है कि मेरा यज्ञ निष्फल है." उसी समय महाराज कृष्ण जो १६ कलाओं के ज्ञाता थे, बोले "अरे नेवले! शांत रहो. अभी अन्धकार का काल आने वाला है. जब हर तरह का अज्ञान संसार में छा  जायेगा. मानव प्रगति समाप्त हो जाएगी. उस समय तुम्हारा ये आधा भाग भी जो स्वर्ण का है एसा नहीं रहेगा."
जो कुछ भी कृष्ण जी ने तब कहा था वह सत्य हो रहा है. कुछ लोग कहते हैं कि इस काल में कर्म करने की आवश्यकता नहीं है. कोई कहता है कि वह कृष्ण का अवतार है. कोई अन्य कहता है कि वह मुक्त आत्मा है. परन्तु ये सभी कथन इस संसार को भ्रमित कर रहे हैं. कृष्ण जी वेद की १६ हज़ार ऋचाओं के साथ विनोद किया करते थे. लेकिन लोग कहते हैं कि उनके पास १६ हज़ार पत्नियाँ थीं. लेकिन उनका उन मन्त्रों पर पूर्ण आधिपत्य था और वे एकांत में उन्हीं का चिंतन किया करते थे.
कलयुग नाम का यह युग अज्ञान का काल है जहाँ पर अध्यात्मिक प्रकाश लोगों के द्वारा अच्छी प्रकार जाना नहीं गया है. बहुत से लोगों को अन्य लोग इसके भ्रम में ग़लत राह पर ले जाते हैं क्योंकि सही मायने में योग के बारे में अधिकतर लोग नहीं जानते.
हमीं आज वेद की शिक्षा पर विचार करना चाहिए कि किस प्रकार ये शिक्षाएं मानव का हर तरह से (all round ) उत्थान करती हैं. हमें पता होना चाहिए कि मानवोत्थान इन्हीं शिक्षाओं पर आधारित है. इन शिक्षाओं के दो भाग हैं - आध्यात्मिक और भौतिक. जब आदमी इन दोनों को लेकर चलता है तब ही वह अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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