मंगलवार, 26 अगस्त 2014

सगुण व निर्गुण उपासना

उपासना दो प्रकार की होती है - एक सगुण व दूसरी निर्गुण। उनमें से शुक्र अर्थात जगत का रचने वाला, वीर्यवान तथा शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयंभू इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुन है और अकाय, अव्रण, अस्नाविर इत्यादि गुणों के निषेध होने से वह निर्गुण कहाता है।

तथा एक देव इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुन और निर्गुणश्च कहने से निर्गुण समझा जाता है।

तथा ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, सनातन, न्यायकारी, दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मंगलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को सगुणोपासना कहते हैं।  और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता, निराकार अर्थात आकारवाले कभी नहीं होता, अकाय अर्थात शरीर कभी नहीं धारता, अव्रण अर्थात जिसमें छिद्र कभी नहीं होता, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धवाला कभी नहीं होता, जिसमें दो, तीन आदि संख्याओं की गणना कभी नहीं बन सकती, जो लम्बा, चोडा, हल्का, भारी आदि कभी नहीं होता, इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उसका स्मरण करने को  निर्गुण उपासना कहते हैं। 



ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका 
(उपासना विषय १४ )

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

अध्यात्म द्वारा वार्तालाप

जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि अध्यात्म पांच कर्मेन्द्रियों, पांच ज्ञानेन्द्रियों, मन, बुद्धि , चित्त, अहंकार, आत्मा और परमात्मा का विज्ञान है।

यदि हम भौतिक विज्ञान में ५० वर्ष अभ्यास करें तो जो हम उपलब्धिप्राप्त करते हैं वह उपलब्धि अध्यात्म में सिर्फ २ वर्ष में ही हो जाती है।  इसलिए अध्यात्म विज्ञान भौतिक विज्ञान से श्रेष्ठ व बड़ा है। 

एक तथ्य मेरे मन में है जो मैं बिलकुल अभी आपके सामने खोल रहा हूँ। 

माना अध्यात्म के द्वारा हम अपने प्रिय से वार्तालाप करना चाहते हैं तो हमें वायुदेव से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए , " ओ वायुदेव! मेरी मेरे प्रिया से वार्तालाप करने में सहायता करो।  जो मैं उसको कहूँ   वह बात वहां तक पहुंचा दो और उसका उत्तर मुझे सुना दो  या मैं सुन पाऊँ।"  वार्तालाप पूर्ण कराने के लिए हमें नम्रता पूर्वक उससे प्रार्थना करनी चाहिए और हमें उसे नमस्कार करना चाहिए। 

तब हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि हमारा अबाधित व स्पष्ट वार्तालाप हो जाता है।  यह वार्तालाप मध्यमा वाणी में होता है। 

समझे? यह अध्यात्म का लाभ है।  हमें योग, उपनिषद, वेद व ऋषि प्रणीत पुस्तकों की सहायता से अध्यात्म में प्रवेश करना चाहिए। 

नोट : चार प्रकार की वाणी होती हैं - परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। बैखरी वाणी में ही सामान्यतया हम आपस में बातचीत करते हैं।

अगली पोस्ट में शीघ्र ही मिलते हैं।


इस पोस्ट को अंग्रेजी में पढ़ें



आपका 
भवानन्द आर्य 'अनुभव'

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

निष्काम कर्म

निष्काम कर्म 
 
महाराजा कृष्ण ने अर्जुन से कहा था "हे अर्जुन! तू आज मुझे प्राप्त हो।  जो भी कार्य करना है वह निष्काम कर। " इसकी व्याख्या यह है कि जिज्ञासु जब गुरु के पास जाता है तो गुरु कहता है कि हे बालक! यदि तुझे जिज्ञासु बनना है तो जो तेरे पास है वह मुझे दे।  मेरे समीप होकर और अर्पण कार्य कर।  इस प्रकार गुरु-शिष्य के सम्बन्ध के नाते कृष्ण ने यहीं कहा था कि तुझे महान कार्य करना है, महान बनना है तो अपने जीवन की सभी शाकल्य योजनाएं और संकल्प विकल्प मेरे अर्पण कर और निष्काम कार्य कर।  आज जिनका तू मोह कर रहा है वे तो पूर्व ही नष्ट हो चुके हैं।  ये आज नहीं तो कल अवश्य ही नष्ट हो जायेंगे।  इन आदेशों को मान कर अर्जुन ने युद्ध किया। 

सर्वज्ञता 

भगवान कृष्ण ने बार बार कहा है कि "मैं सर्वज्ञ हूँ, सर्वशक्तिमान हूँ। " इसका अभिप्राय यह है कि जिन गुरुओं से उस विद्या को जाना है, जिससे आत्म तत्व को जाना जाता है वह गुरु कहा करता है कि मैंने सब कुछ जाना है।  परमात्मा ने मुझे वह शक्ति प्रदान की है कि तेरे पापों को अवश्य ही नष्ट कर दूंगा। 

कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि मैं सर्व प्रकृति को जानता हूँ । परन्तु मुझे तो वह कर्म करना है जिससे यह संसार ऊँचा बने।

(ब्र ० कृष्ण दत्त जी के प्रवचनों से)


आपका अपना 
अनुभव शर्मा 'भवानन्द'

सोमवार, 14 जुलाई 2014

अध्यात्म से जीवन : मोह

परमात्मा ने ये जो हमारे शरीर रूपी यंत्र का निर्माण किया है यह बहुत ही विचित्रताओं से संपन्न हैं।  कहा है -
हर शरीर मंदिर सा पावन हर मानव उपकारी है। 

इन शरीर रूपी यंत्रों में प्रभु ने दस इन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार को स्थान दिया और साथ साथ हमारी जीवात्मा का शरण स्थल बनाया है।
प्रश्न ये उठता है कि अध्यात्म क्या है? इन्हीं दस इन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, जीवात्मा व परमात्मा का ज्ञान,   विज्ञान ही आध्यात्मिक विज्ञान है मित्रों!

इस पोस्ट में मैं इस मन के द्वारा की जाने वाली वैज्ञानिक विचित्रताओं से एक प्रकार की अद्भुत कार्य प्रणाली के विषय में कुछ विचार विनिमय कर रहा हूँ। 

कहा है मन के द्वारा हम मोह वश , काम वश , क्रोधवश, लोभवश या अहंकार वश  होकर जिस विशेष व्यक्ति के विषय में विचारते हैं वह विचार तरंग रूप होकर उसी विशेष व्यक्ति पर प्रहार करते हैं।  अब मैं वैज्ञानिक विधि से समझाता हूँ -
प्रकृति का सबसे सूक्ष्म कण मन है 
जब मन से विचारते हैं तो यह कम्पन करता है 
A vibrating body produces waves - Physics
अतः जब मन से विचारते हैं तो तरंगें उत्पन्न होंगीं और यह प्रभु का नियम है कि  जिस अमुक के विषय में विचारेगे वह तरंगें वहां तक जायेंगीं।  इस तरह से विचारने मात्र से ही हमारी ओर से तरंगों का प्रवाह अपने लक्षय तक पहुँच जाता है।  है ना  प्रभु की सृष्टि रचना विद्या की एक अमूल्य विशेषता ?

इस प्रकार की एक मोही व्यक्ति को मोह की तरंगें नित्य प्राप्त होती रहती हैं क्योंकि जब वह मोह की तरंगें नाना प्राणियों पर उत्सर्ग करता है पायेगा भी।  कहा है कि मोह इकतरफा नहीं होता उसका कारण यहीं विज्ञान है।  क्योंकि प्रभु का ये अद्भुत जगत वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वोच्च है। 

माना एक युवा कन्या है वह मोह की तरंगें नाना साथ के पुरुषों पर उत्सर्ग किया करती है।  क्यूंकि माता का स्वभाव ही मोही होता है।  अब कोई पुरुष यदि उस कन्या से मोह करने लगे तो मोह  स्वाभाविक रूप से तीव्र हो जाएगा किन्तु प्रभाव यह होगा कि दोनों की उन्मादी प्रवृत्ति जागरूक हो जाएगी और कुछ समय के पश्चात उन्हें वास्तविकता का पता चलेगा तो वह मोह ही घृणा का रूप धारण कर लेगा क्यूंकि कोई स्त्री या कोई पुरुष किसी एक की सम्पदा नहीं होती और न ही ऐसा है कि वो कन्या सिर्फ उसी को चाहती हो तो फिर उस पुरुष का मोह करना महा मूर्खता है।  स्वामी दयानंद जी भी कहते है -

मलमय स्त्रियादिकों में आसक्ति रखना मूर्खों का कार्य है। 

और मोही पुरुष को राग के दंड से भी गुज़रना \होगा यह प्रभु का न्याय रूप दंड सभी मोहियों, रागियों  मिलता है। 

लेकिन संसार में मोह न हो तो संसार ही न चले अतः अति मोह कभी न करें।  हल्का मोह होना चाहिए और साथ में कर्त्तव्य भाव से कर्म हों। 

आपका 
भवानन्द आर्य 'अनुभव शर्मा'

रविवार, 15 जून 2014

समस्या हल करना


यदि  हम किसी समस्या का समाधान करना चाहते हैं तो उस समस्या से सम्बंधित नियम व गुणों को विचारते उस विषय में विचारना चाहिए व चिंतन करना चाहिए।  इस प्रकार उस समस्या का हल हमें प्राप्त हो जाता है।  अर्थात -

"किसी समस्या को विचारने से उस का हल प्राप्त हो जाता है। "

इससे हमें पता चला कि मनन चिंतन करना भी हमारे जीवन का एक आवश्यक अंग है।  कहा भी है कि मानव बना है मनन करने से।  मनन करने वाला ही मानव कहलाता है।

अतः हमें अपने जीवन में मनन व चिंतन के लिए भी समय निकालना चाहिए परन्तु चिंतन चिंतन विशुद्ध होना चाहिए।

इस पोस्ट को इंग्लिश में पढ़ें



आपका

भवानन्द आर्य

रविवार, 25 मई 2014

विज्ञान का पंडित

एक समय राजा रावण अश्विनी कुमारों से औषधियों के सम्बन्ध में कुछ विचार विनिमय कर रहे थे।  वार्ता करते करते रावण का ह्रदय अशांत हो गया।  रावण ने कहा कि हे मंत्रियों! मैं भयंकर वन में किसी महापुरूष के दर्शन के लिए जा रहा हूँ। उन्होंने कहा कि प्रभु! जैसी आप की इच्छा, क्योंकि आप स्वतन्त्र हैं।  आप जाइये भ्रमण कीजिये।

राजा रावण मंत्रियों के परामर्श से भ्रमण करते हुए महर्षि शांडिल्य के आश्रम में प्रविष्ट हो गए।  ऋषि ने पूछा कि कहो, तुम्हारा राष्ट्र कुशल है।  रावण ने कहा कि प्रभो! आप की महिमा है। ऋषि ने कहा कि बहुत सुन्दर, हमने श्रवण किया है कि तुम्हारे राष्ट्र में नाना प्रकार की अनुसन्धान शालाएं हैं।  रावण ने कहा कि प्रभु! यह सब तो ईश्वर की अनुकम्पा है।  राष्ट्र को ऊँचा बनाना महान पुरुषों व बुद्धिमानो का कार्य होता है, मेरे द्वारा क्या है? वहां से भ्रमण करते हुए कुक्कुट मुनि के आश्रम में राजा रावण प्रविष्ट हो गये।  दोनों का आचार-विचार के ऊपर विचार-विनिमय होने लगा।  आत्मा के सम्बन्ध में नाना प्रकार की वार्ताएं प्रारम्भ हुईं तो रावण का ह्रदय और मतिष्क दोनों ही सांत्वना को प्राप्त हो गए।  राजा रावण ने निवेदन किया कि प्रभु! मेरी इच्छा है कि आप मेरी लंका का भ्रमण करें।  उन्होंने कहा कि हे रावण मुझे समय आज्ञा नहीं दे रहा है जो आज मैं तुम्हारी लंका का भ्रमण करूँ।  मुझे तो परमात्मा के चिंतन से ही समय नहीं होता।  राजा रावण ने नम्र निवेदन किया, चरणों को स्पर्श किया।  ऋषि का ह्रदय तो प्रायः उदार होता है।  उन्होंने कहा कि बहुत सुन्दर, मैं तुम्हारे यहाँ अवश्य भ्रमण करूँगा।  दोनों महापुरुषों ने वहां से प्रस्थान किया।

राजा रावण नाना प्रकार की शालाओं का दर्शन कराते हुए अंत में अपने पुत्र नारायंतक के द्वार पर जा पहुंचे जो नित्यप्रति चन्द्रमा की यात्रा करते थे और ऋषि से बोले कि भगवन! मेरे पुत्र नारायंतक चंद्रयान बनाते हैं।  महर्षि ने कहा कि कहो आप कितने समय में चन्द्रमा की यात्रा कर लेते हैं।  उन्होंने कहा कि भगवन! एक रात्रि और एक दिवस में मेरा यान चन्द्रमा तक चला जाता है और इतने ही समय में पृथ्वी पर वापस आ जाता है।  इसको चंद्रयान कहते हैं , कृतक यान भी कहा जाता है।  मेरे यहाँ भगवन ! ऐसा भी यंत्र है जो यान जब पृथ्वी की परिक्रमा करता है तो स्वतः ही उसका चित्रण आ जाता है।  मेरे यहाँ 'सोमभावकीव किरकिट' नाम के यंत्र हैं।

वहां से प्रस्थान करके राजा रावण चिकित्सालय में जा पहुंचे जहाँ अश्विनीकुमार जैसे वैद्यराज रहते थे।  ऐसे ऐसे वैद्यराज थे जो माता के गर्भ में जो जरायुज है और माता के रक्त न होने पर, बल न होने पर छः -छः माह तक जरायुज को स्थिर कर देते थे।  किरकिटाअनाद, सेलखंडा, प्राणनी  व अमेतकेतु आदि नाना औषधिओं का पात बनाया जाता था।  तो ऐसी चिकित्सा रावण के राष्ट्र में होती थी।


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आपका
भवानन्द आर्य 'अनुभव'

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

सिद्धियां

वेद में परम पिता परमात्मा स्वतः उपदेश करते हैं कि जिन विधियों से परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है उन विधियों के द्वारा परमात्मा का साक्षात कर लेना ही चाहिए और अपने जीवन में सुख और परमात्मा का सहाय प्राप्त करना चाहिए।  

संध्या जो कि आदि ब्रह्मा जी द्वारा उपदेश की गयी थी और वे संध्या मन्त्र हमें स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित संस्कार विधि में भी मिलते हैं, में एक मन्त्र में कहा गया है कि "जपोपासनादि कर्मणाम् धर्म अर्थ काम मोक्षाणाम् सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः" अर्थात हे परमात्मा हम जप, उपासना आदि कर्मों को करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धियों को शीघ्र ही प्राप्त कर लेवें। बिना परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के हम अल्पबुद्धि जीव, ये चार प्राप्त करने को समर्थ नहीं हैं। बिना उसकी कृपा के यह असंभव है। 

अब विचार आता है कि ये चार सिद्धियां क्या हैं? सिद्धि उसे कहते हैं जिन्हें सिद्ध किया जाए अर्थात किसी चीज़ को भी सिद्ध करने में ज्ञान, समय, साधन व बुद्धि आदि की आवश्यकता होती है  सिद्धि का अर्थ ये नहीं समझ लेना चाहिए कि बस इच्छा की और धार्मिक कार्य संपन्न हो गए, मन्त्र मारा और पैसों की ढेरी बन गयी, कामना की और कामना तुरंत पूरी हो गयी या पल में मोक्ष में पहुँच गए। इसमें तो विधि पूर्वक कर्म करना पड़ता है तभी ये चार पूरे होते हैं। इसमें समय भी लगता है और वो बुद्धि और क्षमता की भी ज़रूरत होती है जिससे कार्य पूर्ण हो जाये।  इतना सब कुछ परम पिता परमात्मा की कृपा और उसको खुश किए बिना संभव नहीं है।  और ऐसा माना जाता है बल्कि ये सत्य है के योगी को सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं परन्तु यदि योगी सिद्धियों में फँस जाता है तो वह परम धाम मोक्ष से वंचित हो जाता है अतः योगी को निर्लेप होना आवश्यक है। आजकल बाबा रामदेव जी ने लगभग सभी को योग का सबक सीखा -सिखा  कर योगी बना डाला है वह दिन दूर नहीं जब उत्तम योगी ही राष्ट्र की बागडोर सम्हालेंगे और राष्ट्र की प्रजा भी योगी ही होगी और उत्तम चरित्र होने के कारण अधिकतम प्रजा स्वाधीन भी होगी। उनकी शुभेच्छाएँ भी पूर्ण हुआ करेंगी जिससे भारत फिर से दुनियां के राष्ट्रों में सिरमौर होगा। 

व्यक्ति को गायत्री जप, ॐ के जप व अन्य जप करने चाहिए।  उपासना में हमें गायन, वादन, व मंत्रोच्चार के द्वारा प्रभु के निकट जाने का प्रयास करना चाहिए।  स्तुति में हमें अपने मुख से परम पिता परमात्मा के गुणों का बखान करना चाहिए जो के धार्मिक गुरु भी करते हैं लेकिन होना सब वेदानुकूल चाहिए हालांकि परमपिता परमात्मा तो अन्तर्निहित भावनाओं का भोजन करते हैं तो यदि कोई भूलवश सही विधि भी नहीं करपाता तो भी अधिक हानि नहीं है और  कलयुग में तो किसी भी उत्तम प्रकार से कोई भक्ति करता है तो उसके फल स्वरुप भी उसे परमात्मा के सही रूप को पहचानने में सहायता मिल ही जाती है क्योंकि इस युग में अज्ञान अधिक है और परम प्रभु तो ये सब जानते है लेकिन फिर भी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सही विधि का ज्ञान होने तक हम उन चार से वंचित न रह जाएँ इसलिए सही विधि का पता कर लेना चाहिए।  

यज्ञ, जिसको राम जी, कृष्ण जी और समस्त ऋषि मुनिओं ने पूजा है उस यज्ञ में सारी  विधियां आ जाती हैं अतः हमें यज्ञ को बढ़ावा देना चाहिए।  यह यज्ञ संसार का श्रेष्ठतम कर्म है और इसको ऋषिओं ने ब्रह्माण्ड की नाभि भी बताया है। 



आपका 
भवानन्द आर्य 'अनुभव शर्मा'

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

जड़ भरत

एक बार की बात है एक ऋषि जिनका नाम साकल्य मुनि था तपस्या करते करते जब अपने तीनों शरीरों - स्थूल, सूक्ष्म व कारण को भी जान गए तो वे अपने तप में पूर्ण हो गए थे।  वह मुक्ति के जिज्ञासु थे और मुक्ति के निकट पहुँच गए थे। 

एक बार ऐसा हुआ कि वे अपने आश्रम में विराजमान थे जब एक हिरणी जो कि गर्भवती थी और उसका पीछा एक व्याघ्र कर रहा था उस आश्रम की और आई।  आश्रम में ही उसका गर्भपात हो गया।  नवजात बच्चे को छोड़ कर ही वो व्याघ्र से बचने के लिए भाग गयी।  जब मुनि ने देखा कि वह हिरणी का बच्चा तड़प रहा है तो उन्होंने विचारा कि इसकी मदद की जाये।  लेकिन उन्होंने फिर विचारा कि प्रभु तो है ही वह स्वतः इसकी सहायता करेंगे और मैं तो मुक्ति में जा रहा हूँ , मैं क्यों इस मोह माया के बंधन में फँसूँ।  लेकिन जब पुनः विचारा तो ये निष्कर्ष निकाला की इस बच्चे की मदद की जाए और वे उठे और मन्त्र पढ़ कर उसपर जल छिड़का।  तुरंत उस बच्चे को चेतना आ गयी और वो खेलने कूदने लगा। वह उसको पुत्रवत पालने लगे।   धीरे-धीरे ऋषि को उस हिरणी के बच्चे से मोह हो गया। एक बार साकल्य मुनि के पिता उस के पास आये और बोले कि तुम्हें अपने माता-पिता आदि किसी से मोह नहीं फिर तुमने इस हिरन से मोह किया है यह तो ठीक नहीं है।  इस पर साकल्य मुनि बोले कि हे पितर मुझे किसी से मोह नहीं परन्तु अब क्या करूँ मुझे तो मोह हो गया है।  हिरन की आयु कम होती है तो एक दिन तो उसको मरना ही था हिरणी के बच्चे की मृत्यु हो गयी और साकल्य मुनि ने भी उसके वियोग में प्राण त्याग दिए कि  मेरा पुत्र कहाँ चला गया? इस प्रकार वे आवागमन के चक्र में पुनः फँस गए।

साकल्य मुनि की महान आत्मा ने एक रानी के गर्भ में प्रवेश किया और गर्भ में ही परम पिता से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु मैंने पिछले जन्म में हिरणी के बच्चे से मोह किया था अब मैं कभी मोह नहीं करूँगा। ऋषि का संकल्प था पूरा तो होना ही था।  जब उन्होंने जन्म लिया तो वह पूरी तरह मोह रहित थे।  जब वह बालक पैदा हुआ तो राजा का पुत्र था बड़ी धूमधाम से उसका जन्म संस्कार हुआ।  मोह तो उन्हें था नहीं अतः जहाँ भी उन्हें नियुक्त किया जाता वहां ही तोड़ फोड़ मचा दिया करते। जब वह थोड़े बड़े हुए तो नाना वैद्यराजो को उस बाल्य को दिखाया गया लेकिन वे कहते कि  इसके मस्तिष्क में कोई कमी नहीं है।  यह बालक बहुत ही ऊँचा बनेगा।  अप्रसिद्धि के भय से राजा ने उस को एक वाटिका में नियुक्त कर दिया। लेकिन उस ने वह वाटिका तोड़ डाली तब राजा ने उसे अपने पहरेदारों के द्वारा राज्य की सीमा से बाहर निकलवा दिया।  अब वे वनों में पहुंचे और उनके पूर्व जन्मों के संस्कार जागृत होने शुरू हो गए कि मेरे पिता ने किस दंड स्वरूप मुझे अपने राज्य से बाह्य कर दिया।  वह फल और पत्र लेकर तपस्या करने लगे।  धीरे धीरे वे जड़ भरत के नाम से प्रसिद्द हो गए। 

एक राजा थे राजा नहुष।  उन्होंने विचारा की चलो अब राज्य त्याग किया जाये और मुक्ति के लिए कुछ उपाय किया जाए।  उन्होंने जड़ भरत का नाम सुना था अतः वह पालकी पर बैठ कर वनों की और चल दिए।  रास्ते में उनके चार पालकीवानों में से एक की तबियत ख़राब हो गयी।  राजा ने एक पेड़ के नीचे एक नवयुवक को बैठे देखा उन्होंने उसको चौथा पालकीवान बना दिया।  वह नवयुवक जड़भरत था।  जड़भरत से पालकी ले जानी तो आती ही न थी अतः वह चलते-चलते कभी ऊपर और कभी नीचे हो रहा था जिससे की विघ्न होने पर राजा को क्रोध आ गया।  राजा उतर कर जड़ भरत पर छड़ी से प्रहार करने लगा।  उनके शरीर से खून बहने लगा खून को देख कर जड़ भरत मग्न होने लगे और कहने लगे "प्रभु आपने मुझे मोह का ये दंड दिया है इन लोगों का क्या होगा जब ये आप के द्वार आएंगे जिनमे काम भी है और क्रोध भी विशेष है प्रभु आप इन लोगों का क्या हाल करोगे?" जड़ भरत को इस प्रकार मग्न देखकर राजा विचार में पड़ गया और उसने पूछा कि हे महापुरुष आप कौन हो तो ऋषि बोले , "मुझे जड़भरत कहते हैं। " यह सुनते ही नहुष बहुत प्रायश्चित्त करने लगा और बोला, "प्रभु! मैं तो आप के ही द्वार आ रहा था मुझे पता न था कि आप जड़भरत हो। " और उनसे क्षमा याचना करने लगा और चरणों को स्पर्श करने लगा।  बाद में नहुष ने जड़भरत से कहा कि  प्रभु! मुझे भी कुछ मुक्ति के लिए शिक्षा दो।  जड़भरत बोले कि अगर मुक्ति की कामना करते हैं तो इस शरीर का मोह भी त्यागना पड़ता है।  और वे उसे शिष्य बना कर शिक्षा देने लगे।

आपका
भवानन्द आर्य

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

रावण का विवाह संस्कार

राजा महिदन्त चक्रवर्ती राजा थे।  पातालपुरी, रोहिणी, गांधार इत्यादि राज्य राजा महिदन्त के अधीन थे।  इनका जो राजकोष था वह लंका में था और महाराजा शिव उनके सहायक रहते थे।  एक समय पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से निवेदन करके लंका में एक स्थान नियुक्त किया, वह स्वर्ण का गृह था जिसमें पुलस्त्य ऋषि विश्राम किया करते थे।  कुछ समय के पश्चात ऐसा हुआ की लंका का स्वामी कुबेर बन गया और भी सब राजाओं ने अपने - अपने राष्ट्र को अपना लिया।  पातालपुरी को कुधित रूष्ठित नाम के राजा ने अपना लिया और भार्तिक नाम के राजा ने सौमधित राज्य को अपना लिया।  राजा महिदन्त का सूक्ष्म सा राष्ट्र रह गया।  
राजा महिदन्त के न कोई पुत्र था, न कन्या थी।  कुछ समय के पश्चात ऐसा सुना गया कि राजा

महिदन्त के एक कन्या उत्पन्न हुई तो राजा ने बड़ा ही आनंद मनाया, नाना वेदों के पाठ कराये, जन्म संस्कार बड़े उत्सव से कराया।  उसके पश्चात कन्या जब कुछ प्रबल हुई तो महाराजा की धर्मपत्नी सुरेखा ने कहा कि हे भगवन! इस कन्या को तो गुरुकुल में जाना चाहिए, जिससे यह विद्या पाकर परिपक्व हो जाये।  उस समय महाराजा महिदन्त अपनी धर्मपत्नी  की याचना को पाकर, उस कन्या को लेकर कुल-पुरोहित महर्षि तत्व मुनि महाराज के समक्ष पहुंचे।  वहां पहुंचकर राजा और कन्या ने महर्षि के चरणों को स्पर्श किया और राजा ने कहा कि भगवन! मेरी कन्या को यथार्थ विद्या दीजिए जिससे यह हर प्रकार की विद्या में सफल होवे। 

महर्षि बाल्मीकि ने इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन किया है कि राजा महिदन्त तो अपने स्थान पर चले गए और ऋषि ने उस कन्या को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी।  शिक्षा पाते - पाते वह कन्या बड़ी महान बनी और विद्या में बहुत ऊँची सफलता प्राप्त की।  वह भौतिक यज्ञ और कर्मकाण्ड में प्रकाण्ड हो गयीं।  वह वेदों का हर समय स्वाध्याय करती थीं।  उस समय ऋषि ने अपने मन में सोचा कि यह कन्या तो क्षत्रिय की है परन्तु इसके गुणों को देखते हैं तो ब्राह्मण कुल में जाने योग्य है।  अब क्या करना चाहिए? ऋषिवर यहीं नित्य प्रति विचारा करते थे।  कुछ काल के पश्चात वह कन्या युवा हो गयी।  जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व होता है, वह कन्या अपने ब्रह्मचर्य से परिपक्व थी।  राजा ने अपनी धर्मपत्नी के कथनानुसार ऋषि से जाकर प्रार्थना की, कि भगवन! अब कन्या को गृह में ले जाना चाहते हैं।  अब इसका संस्कार भी करना चाहिए।  मुझे नियुक्त कीजिए कि मेरी कन्या कौन से गुण वाली है , किस वर्ण में इसका संस्कार होना चाहिए? उस समय ऋषि ने कहा कि भाई! तुम्हारी कन्या तो ऋषिकुल में जाने योग्य है, आगे तुम किसी के द्वारा इसका संस्कार करो, हमें कोई आपत्ति नहीं।  राजा वहां से उस ब्रह्मचारिणी को लेकर राज गृह आ पहुंचे। 

हमारे यहाँ यह परिपाटी है कि जब ब्रह्मचारिणी या ब्रह्मचारी गुरुकुल से आये तो माता-पिता यजन और ब्रह्मभोज कर उनका स्वागत करें।  उसी प्रकार माता-पिता ने उस कन्या का यथाशक्ति स्वागत किया।  स्वागत करने के पश्चात पत्नी ने अपने पति से कहा कि महाराज! अब तो हमारी कन्या युवा हो गयी है, इसके संस्कार का कोई कार्य करो।  महाराज नित्यप्रति भ्रमण करने लगे।  भ्रमण करते-करते पुलस्त्य ऋषि के पुत्र मनीचन्द के द्वार जा पहुंचे।  मनीचन्द के एक पुत्र था जो ४८ वर्ष का आदित्य ब्रह्मचारी था।  वह वेदों का महान प्रकांड विद्वान था।  महाराज ने मनीचन्द से निवेदन किया कि महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार कीजिए, मैं तुम्हारे पुत्र से अपनी कन्या का संस्कार करना चाहता हूँ।  उस समय मनीचन्द ने कहा कि महाराज! हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ हैं जो इतनी तेजस्वी कन्या हमारे कुल में आये।  बालक वरुण ने और माता-पिता ने उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया।  राजा मग्न होते हुए अपने घर आ पहुंचे।

नक्षत्रों के अनुकूल समय नियुक्त किया गया।  कुछ समय के पश्चात वह दिवस आ गया।  मनीचन्द अपने पुत्र से बोले कि हे पुत्र! आदि ब्राह्मण जनों का समाज होना चाहिए।  जिस कन्या का, जिस पुत्री का, जिस पुत्र का, वेद के विद्वानों में, विद्वत मण्डल में संस्कार होता है, उसका कार्य हमेशा पूर्ण हुआ है।  उस समय नाना ऋषिओं को निमंत्रण दिया गया।  निमंत्रण के पश्चात विद्वत् समाज वहाँ से नियुक्त हो राजा महिदन्त के समक्ष आ पहुंचा।  राजा महिदन्त ने देखा कि बड़ा विद्वत् मण्डल है।  राजा ने यथाशक्ति स्वागत किया।  ऋषिओं की परिपाटी के अनुकूल ब्रह्मचारिणी अपने पति का स्वयं सत्कार करने जा पहुंची।  नाना मणियों से गुंथी हुई पुष्प मालाएं तथा नाना प्रकार की मेवाएं, उस कन्या ने उनके समक्ष नियुक्त  कीं, न उन्होंने वह स्वीकार कर लीं।  इस प्रकार राजा ने अपने सम्बन्धिओं का यथा शक्ति स्वागत किया, स्वागत के पश्चात यथा स्थान पर विराजमान किया गया।  सायं काल कन्या के संस्कार का समय हो गया।  बड़े आनंद के साथ वहां संस्कार होने लगा, बुद्धिमानों के वेदमंत्र होने लगे।  ब्रह्मचारी अपने वेदमंत्रों का गान गा रहा था ब्रह्मचारिणी अपने वेदमंत्र गा रही थी, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेदों के गान गाए जा रहे थे . बड़ी आशानंदी से वह संस्कार समाप्त हो गया।

अगला दिवस आ गया।  उस समय शरद वायु चल रही थी।  उसके कारण बालक के सम्बन्धी  स्नान नहीं कर रहे थे।  उस बालक ने कहा अरे! तुम स्नान क्यों नहीं कर रहे हो? उन्होंने कहा स्नान क्या करें, शरद वायु चल रही है।  उस समय उस बाल ब्रह्मचारी ने, जो वेदों का ज्ञाता था, जो विज्ञान की मर्यादा को जानता था, उसने प्रणाम किया और कहा के हे वायुदेव! तुम हमारे कार्य में विघ्न डाल रहे हो, कुछ समय के लिये शांत हो जाओ।  उस समय उस ब्रह्मचारी के संकल्पों द्वारा वायु कुछ धीमी हो गयी।  सभी सम्बन्धिओं ने स्नान किया।  नाना सम्बन्धी स्नान कर अपने-अपने स्थानों पर नियुक्त हो गए।

इसके पश्चात द्वितीय समय आया और वहां से सब अपने-अपने गृह को जाने लगे तो उस समय \राजा महिदन्त ने यथाशक्ति सभी का स्वागत किया।  जब कन्या जाने लगी तो एक ने कहा के अरे भाई! यह पुत्र  इतना योग्य था परन्तु राजा महिदन्त ने अच्छी प्रकार स्वागत नहीं किया।  उस समय राजा महिदन्त व्याकुल होने लगे।  उन्होंने व्याकुल  होकर कहा कि हे सम्बन्धियों! मैं क्या करूँ? मेरा तो यह काल ही ऐसा है।  कोई समय था जब चक्रवर्ती राज्य था।  अब तो जितना द्रव्य था, सब लंका चला गया, महाराजा कुबेर उसका स्वामी बन गया है।  उस समय इन वार्ताओं को स्वीकार कर सबने अपने-अपने स्थान की और प्रस्थान किया।

उस बालक ने अपने गृह पहुँच कर सोचा कि मेरे सम्बन्धी ने जो यह कहा है कि मेरी लंका को कुबेर ने विजय कर लिया है तो मुझे कुबेर से लंका को विजय करना है।  बुद्धिमान सर्वत्र पूज्य होता है।  पुलस्त्य ऋषि महाराज का पौत्र था, इसलिए वह जिस राष्ट्र में जाता था उसका स्वागत होता था।  जो स्वागत में कुछ देता तो ब्रह्मचारी उससे मांगते १० हज़ार सेना मुझे दो जिससे कि मेरा काम बने।  इस प्रकार प्रत्येक राज्य से दस-दस हज़ार सेना एकत्र करके उसने लंका पर हमला किया और राजा कुबेर को जीत लिया।  उस समय राजा कुबेर ने कहा था कि अरे भाई! तुम मुझे क्यों विजय कर रहे हो? उस समय उस महान ब्रह्मचारी ने कहा था कि कुबेर! मैं तेरे राष्ट्र में शांति नहीं देख रहा हूँ।  जिस काल में जिस राजा की प्रजा शान्त न हो, उस समय उस राजा को पद से गिरा देना धर्म है और उसके स्थान पर शांतिदायक, आत्मज्ञानी को, जो प्रजा को यथार्थ सुख-शान्ति  देने वाला हो, राजा बनाना चाहिए।

राजा कुबेर को लंका से पृथक कर वह बालक वरुण राजा महिदन्त के सम्मुख आ पहुंचा और उनसे बोला कि महाराज! मैंने लंका को विजय कर लिया है, आप अपनी लंका को स्वीकार कीजिए।  उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि हे ब्रह्मचारी लंका को तुमने विजय किया है, मुझे स्वीकार है परन्तु स्वीकार करके मैंने यह लंका अपनी कन्या के दहेज में तुम्हें अर्पण कर दी।

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भवानन्द आर्य 'अनुभव'

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

राजा रावण

लंका की राज्य प्रणाली 
राजा रावण से पूर्व लंका के महाराजा कुबेर थे, महाराजा कुबेर से पूर्व महाराजा महिदन्त  थे, महिदन्त से पूर्व महाराजा शिव थे।  लंका की प्रणाली बहुत पूर्व से चली आ रही थी।  जब रावण राजा बने तब महाराजा रघु का जितना राज्य था,  उस पर रावण ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, राजा दशरथ के पास सूक्ष्म सा अयोध्या का राष्ट्र रह गया था। 


वरुण से रावण

महाराजा महिदन्त की कन्या मन्दोदरी का संस्कार महाराजा रावण के साथ सम्पन्न हुआ।  रावण का बाल्यकाल का नाम ब्रह्मचारी वरुण था।  ब्राह्मण और वेदों का पंडित होने के कारण रावण को राजाओं ने सहायता प्रदान की और कुबेर को लंका से पृथक कर उन्हें लंका का स्वामी बना दिया।  जब वरुण का लंका के लिए चुनाव हुआ तो सब विद्वानों ने मिलकर इसका नाम रावण नियुक्त कर दिया।  'रावण' महादानी को कहा जाता है।  व्याकरण की दृष्टि से 'रावण' बुद्धिमान और विज्ञानवेत्ता को कहा जाता है।  यह कोई अपशब्द नहीं है।  व्याकरण की दृष्टि से, मानव समाज की दृष्टि से रावण महादानी को कहते हैं।

दशानन 

आधुनिक जगत में ऐसा कहा जाता है कि रावण के दस शीश थे, राम जब उन्हें नष्ट करते थे तो शीश द्वितीय उमड़ आते थे।  यह तो केवल उपहास है।  रावण को  क्यों कहते हैं? आनन नाम दिशाओं का है और यह पूर्व, पश्चिम, उत्तरायण और दक्षिणायन और इनकी चारों अस्थेती, पृथ्वी और अन्तरिक्ष  यह दस दिशाएं दिशाएं कहलाती हैं, इनके पूर्ण विज्ञान को राजा रावण जानते थे।  वे ब्राह्मण व महान प्रकांड बुद्धिमान थे। 

नाभि में अमृत कुण्ड 

ब्रह्मचारी वरुण सुशील था, वेदपाठी था, महान वैज्ञानिक था और महान बुद्धिमान था, उसकी आत्मा पवित्र थी, ह्रदय निर्मल हो गया था।  आयुर्वेद के सिद्धांत से इस वरुण ने जितना भी आयुर्वेद का नाड़ी विज्ञान था, वह जाना।  मनुष्य के शरीर में जो नाभि चक्र है इसमें लगभग दो करोड़ नाड़ियों का समूह है।  एक सुषुम्ना नाम की नाड़ी होती है जो मस्तिष्क से चलती है और उसका सम्बन्ध नाभि चक्र के अग्र भाग से होता है।  जो मनुष्य अच्छे विचार वाला होता है, परमपिता परमात्मा का चिंतन करने वाला होता है तो वह मनुष्य नाड़ी के विज्ञान से नाना विज्ञान को जानता है।  सुधित नाम की नाड़ी, उसको बोधित नाम की नाड़ी भी कहते हैं, जो ब्रह्म रंध्र से चलती है और उसका सम्बन्ध नाभि से रहता है । जब चन्द्रमा सम्पूर्ण कलाओं से पूर्णिमा के दिन परिपक्व होता है तो वह जो सुधित नाम की नाड़ी है उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से होता हुआ सीधा चन्द्रमा से हो जाता है।  चन्द्रमा से जो कांति मिलती है उसे वह नाड़ी पान करती है। 
जो नाड़ी विज्ञान को जानने वाले होते हैं वह जानते हैं कि योग के द्वारा किस प्रकार चन्द्रमा से अमृत की प्राप्ति होती है, इस प्रकार वह अमृत पकता है और जो नाड़ियों के मध्य स्थान होता है, उस स्थान में यह अमृत एकत्रित होता रहता है।  तो इसमें क्या विशेषता है? इससे मानव का जीवन बलिष्ठ होता है और मृत्यु से भी विजयी बन जाता है।  उसे यह ज्ञात हो जाता है कि तेरी मृत्यु अधिक काल में आएगी, उसकी आयु अधिक हो जाती है, क्योंकि वह आनंद रूपी अमृत नाभिस्थल में होता है।  तो इसी को नाभि में अमृतकुंड कहते हैं। 

शिक्षा 

राजा रावण ने महर्षि भारद्वाज, महर्षि सोमभुक तथा ब्रह्मा जी से विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी।  शिव भी रावण के गुरु थे। 

(पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी के प्रवचनों से)

आपका 
भवानन्द आर्य

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

अंगद और जामवंत

प्राण विद्या के विशेषज्ञ अंगद 
(पूज्य पाद गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी के प्रवचनों से )

हनुमान तो प्राण विद्या के विशेषज्ञ थे ही, यही विद्या बाली के पुत्र अंगद पर पहुंची।  राम ने अंगद से कहा कि हे अंगद! रावण के द्वार जाओ।  कुछ सुलह हो जाए, उनके और हमारे विचारों में एकता आ जाए, जाओ तुम उनको शिक्षा दो। 

अब अंगद रावण की सभा में पहुंचे तो वहाँ नाना वैज्ञानिक भी विराजमान थे, राजा रावण और उनके सर्व पुत्र विराजमान थे।  रावण ने कहा कि आओ! तुम्हारा आगमन कैसे हुआ? अंगद ने कहा कि प्रभु मैं इसलिए आया हूँ कि राम और तुम्हारे दोनों के विचारों में एकता आ जाए।  तुम्हारे यहाँ संस्कृति के प्रसार में अभाव आ गया है, अब मैं उस अभाव को शांत करने आया हूँ।  चरित्र की स्थापना करना राजा का कर्त्तव्य होता है, तुम्हारे राष्ट्र में चरित्र हीनता आ गयी है, तुम्हारा राष्ट्र उत्तम प्रतीत नहीं हो रहा है इसलिए मैं आज यहाँ आया हूँ।  रावण ने कहा यह तो तुम्हारा विचार यथार्थ है परन्तु मेरे यहाँ क्या सूक्ष्मता है?
अब अंगद बोले तुम्हारे यहाँ चरित्र की सूक्ष्मता है।  राजा के राष्ट्र में जब चरित्र नहीं होता तो संस्कृति का विनाश हो जाता है।  संस्कृति का विनाश नहीं होना चाहिए, संस्कृति का उत्थान करना है।  संस्कृति यहीं कहती है कि मानव के आचार व्यव्हार को सुन्दर बनाया जाए, महत्ता में लाया जाए, एक दूसरे की पुत्री की रक्षा होनी चाहिए।  वह राजा के राष्ट्र की पद्धति कहलाती है।  रावण ने पूछा क्या मेरे राष्ट्र में विज्ञानं नहीं? अंगद बोले कि हे रावण! तुम्हारे राष्ट्र में विज्ञानं है परन्तु विज्ञान का क्या बनता है? एक मंगल की यात्रा कर रहा है परन्तु मंगल की यात्रा का क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में अग्निकांड हो रहे हैं।  हे रावण! तुम सूर्य मंडल कि यात्रा कर रहे हो, उस सूर्य की यात्रा करने से क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में एक कन्या का जीवन सुरक्षित नहीं।  तुम्हारे राष्ट्र का क्या बनेगा? रावण ने कहा यह तुम क्या उच्चारण कर रहे हो, तुम अपने पिता की परंपरा शांत कर गए हो।  अंगद ने कहा कदापि नहीं, में इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे राष्ट्र और अयोध्या दोनों का समन्वय हो जाए। 
इसपर रावण मौन हो गया।  नरायान्तक बोले कि भगवन! इसको विचारा जाए, यह दूत है, यह क्या कहता है? अंगद बोले यदि भगवन! राम से तुम अपने विचारों का समन्वय कर लोगे तो राम माता सीता को लेकर चले जाएंगे। रावण ने कहा कि यह क्या उच्चारण कर रहा है? मैं धृष्ट नहीं हूँ।  अंगद बोले यहीं धृष्टता है संसार में, किसी दूसरे की कन्या को हरण करके लाना एक महान धृष्टता है।  तुम्हारी यह धृष्टता है कि राजा होकर भी परस्त्रीगामी बन गए हो।  जो राजा किसी स्त्री का अपमान करता है उस राजा के राष्ट्र में अग्नि काण्ड हो जाते हैं

रावण ने कहा कि यह कटु उच्चारण कर रहा है।  अंगद ने कहा कि मैं तुम्हें प्राण की एक क्रिया निश्चित कर रहा हूँ, यदि चरित्र की उज्ज्वलता है तो मेरा यह पग है इस योग को यदि तुम एक क्षण भी अपने स्थान से दूर कर दोगे तो मैं उस समय में माता सीता को त्याग करके राम को अयोध्या ले जाउंगा।
यही  उनकी प्राण की क्रिया थी। सर्व प्राण को एक पग में ले गए और उदान -प्राण, व्यान और अपान तीनों को मिलान कर के नाग की पुट लगा कर के, चारों प्राणों का मिलान हो कर के प्राण भी उसमें पुष्ट हो गया तो वह शरीर विशाल बन गया।  राज सभा में कोई ऐसा बलिष्ठ नहीं था जो उसके पग को एक क्षण भर भी अपनी स्थिति से दूर कर सके।  अंगद का पग जब जब एक क्षण भर दूर नहीं हुआ तो रावण उस समय स्वतः चला परन्तु रावण के आते ही उन्होंने कहा कि यह अधिराज है, अधिराजों से पग उठवाना सुन्दर नहीं है।  उन्होंने अपने पग को अपनी स्थली में नियुक्त कर दिया और कहा कि हे रावण! तुम्हें मेरे चरणों को स्पर्श करना निरर्थक है।  यदि तुम राम के चरणों को स्पर्श करो तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है, तुम्हारे विचारों का समन्वय हो जाएगा।
रावण मौन होकर अपने स्थल पर विराजमान हो गया।  नरायान्तक ने कहा कि हे पिता! जिस राजा की सेना में प्राण के ऐसे ऐसे विशषज्ञ हों, ऐसी सेना को हम विजय नहीं कर सकेंगे।  हम तो प्राणों को केवल विज्ञान में ही लाना जानते हैं परन्तु यह प्राणों को शिराओं में लाना जानता है।  जो शिराओं में प्राणों को लाना जानता है, हे पितृ ! उस सेना को संसार में कोई भी विजय नहीं कर सकता।

वैज्ञानिक राजा जामवंत
जामवंत को आज रीछ की संज्ञा दी जाती है परन्तु वह तो महान वैज्ञानिक थे।  समुद्र के तटों पर वह विज्ञान के एक मचान को निर्मित करते रहते थे , जिस मचान के द्वारा समुद्र में ऐसे यंत्रों को निर्धारित करते रहते थे कि जिनसे समुद्र के पदार्थों का ज्ञान हो जाता था।  उनके यंत्र उर्ध्व में आते थे।  उन्होंने और भी नाना यंत्रों का निर्माण किया था, वह राजा थे।  राजा  रावण ने इन सबके राज्यों को अपने अधीन बना लिया था। जामवंत ने युद्ध में राम की सहायता की थी।  उन्होंने राम को ऐसा यंत्र प्रदान किया जो विषैले परमाणुओं को अपने में निगल जाता था।


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भवानंद आर्य 'अनुभव'

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

एक भजन

हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे ज़मीं खा गई नौजवान कैसे कैसे।

आज जवानी पर इतराने वाले कल पछताएगा चढ़ता सूरज ढलता है ढल जाएगा।

तू यहाँ मुसाफिर है ये सराय फानी है चार रोज़ की महमाँ तेरी ज़िंदगानी है।
धन ज़मीन ज़र ज़ेवर कुछ न साथ जाएगा खाली हाथ आया है खाली हाथ जाएगा।

जान कर भी अनजान बन रहा है दीवाने अपनी उम्र पामी पर तन रहा है दीवाने।
किस कदर तू खोया है इस जहाँ के मेले में तू खुदा को भुला है फँस के इस झमेले में।

आज तक ये देखा है पाने वाला खोता है ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है।
मिटने वाली दुनिया का एतबार करता है क्या समझ के तू आखिर इससे प्यार करता है।

अपनी अपनी फिकरों में जो भी है वो उलझा है ज़िन्दगी हक़ीक़त में क्या है कौन समझा है।
आज समझ ले कल ये मौक़ा हाथ तेरे न आयेगा ओ ग़फ़लत की नींद में सोने वाले धोखा खाएगा।


मौत ने ज़माने को ये समां दिखा डाला कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला।
याद रख सिकंदर के हौंसले तो आली थे जब गया था दुनियां से दोनों हाथ खाली थे।

अब न वो हलाकू हैं और न उसके साथी हैं जन वजू और तोरत और न उसके हाथी हैं।
कल जो बन के चलते थे अपनी शान ओ शोकत पर शम्मा तक नहीं जलती आज उनकी तुर्बत पर।

अदन हो या आला हो सब को लौट जाना है मुफलीसो समंदर का क़ब्र ही ठिकाना है ।
जैसी करनी करनी वैसी भरनी आज या कल पायेगा सर को उठा कर चलने वाले एक दिन ठोकर खायेगा।

मौत सब को आनी है कौन इससे छूटा है तू फ़ना नहीं होगा ये ख्याल झूंठा है।
सांस छूटते ही सब रिश्ते छूट जायेंगे बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे।

तेरी सारी उल्फत को खाक में मिला देंगे तेरे चाहने वाले कल तुझे भुला  देंगे।
इसलिए ये कहता हूँ खूब सोच ले मन में क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में।
 
कर गुनाहों से तौबा भाग्य कब संभल जाये दम का क्या भरोसा है जाने कब निकल जाये।
मुट्ठी बांध के आने वाले हाथ पसारे जायेगा धन दौलत तारीफ से तूने क्या पाया क्या पायेगा।


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भवानंद आर्य 'अनुभव'

शनिवार, 29 मार्च 2014

योगी , वैज्ञानिक व वीर : हनुमान


महाराजा हनुमान आकुंचन के ऊपर अध्ययन करते थे तो उनकी आकुंचन शक्ति बहुत बलवान हो गयी थी।  मुझे स्मरण आता रहता है कि  त्रेता के काल से महाराजा हनुमान आकुंचन शक्ति के अनुसार अपने शरीर को सूक्ष्म बनाने व विशाल बनाने का अनुसन्धान करते रहते थे।  आकुंचन की ये गतियाँ योगाभ्यास के द्वारा ही आती हैं।  आकुंचन क्रिया को जानकर मानव को आश्चर्य होता है। 

हनुमान महान योगी, महान ब्रह्मचारी, तार्किक व महाराजा राम के मंत्री थे।  उन्होंने सूर्य के महान विज्ञानं को जाना था। उसके एक एक कण को जाना था।  वह विज्ञान उनके कंठ था।  इसलिए यह कहना यथार्थ है कि हनुमान ने सूर्य को नहीं, उसके महान गुणों और विज्ञान को अपने मुखारविन्द में अर्पण  कर लिया था। हनुमान ने यौगिक क्रियाओं से समुद्र को पार किया था। 

महाराजा हनुमान उदान - प्राण से कूर्म और कृकल प्राण का मिलान करना जानते थे, जिस विधि से इस शरीर को स्थूल और सूक्ष्म किया जाता है।  प्रकृति की पांच प्रकार की गतियाँ मानी जाती हैं - आकुंचन , प्रसारण , ऊर्ध्वा , ध्रुव और गमन।  इन पांचों प्रकार की गतियों को जानने वाला योगेश्वर अपने को स्थूल रूपों में ला सकता है एवं आकुंचन द्वारा सूक्ष्म बना सकता है।  हनुमान आकुंचन द्वारा सुरसा के मुख में परिणित हो गए थे। 

हनुमान सूर्य विद्या के प्रकांड पंडित थे।  एक बार राम ने हनुमान से पूछा कि मैं जानना चाहता हूँ कि सूर्य की किरणों से रोगों का विनाश कैसे होता है ? हनुमान ने कहा कि सूर्य की सहस्रों प्रकार की किरणे होती हैं किन्तु मुख्य किरणें सात होती हैं।  इन किरणों में विभिन्न प्रकार के रंग जैसे श्वेत , हरित , रक्त आदि होते हैं।  मानव के शरीर में यह पांच महाभूत ही कार्य कर रहे हैं।  जब मानव रुग्ण हो जाता है तो उसके शरीर  में  इन्ही महाभूतों में से किसी का प्रभाव सूक्ष्म हो जाता है।  जो तत्व मानव के शरीर में सूक्ष्म हो जाता है उसी प्रकार की किरणों को लाया जाता है।  वह किरण मानव के शरीर में रुग्ण स्थान पर प्रभाव डालती है तथा रोग शांत हो जाता है।

सीता को खोजने के लिए महाराज हनुमान अपने यान 'पदकेतु' में विद्यमान होकर लंका में पहुंचे।  वे कितने विज्ञानमय थे ।  'सूर्यकेत' नाम की पोथी का का निर्माण महाराजा हनुमान ने किया था।  सूर्य विज्ञान के ऊपर नाना रूपों में उन्होंने उस पोथी का निर्माण किया  महाभारत के पश्चात् जैन काल में वह अग्नि के मुखारविंद में परिणित कर दी गयी।

कूटनीतिज्ञ
 लंका को विजय करने के पश्चात् विभीषण राम के समीप आये और राम से यह कहा कि हे भगवन! आप यहाँ से अब प्रस्थान करेंगे , आपने बड़ा अनुग्रह किया है, अब मेरे यहाँ अन्न ग्रहण करो।  आपको निमंत्रण देने आया हूँ।  राम की इच्छा बन गयी थी कि हम अन्न ग्रहण कर सकेंगे।  परन्तु देखो , जब हनुमान जी उनके मध्य में गए तो हनुमान जी ने कहा कि इस पर हम विचार करेंगे।  उन्होंने जब ऐसा कहा तो राम ने अपने वाक्यों को आगे उच्चारण नहीं किया।  राम ने एकांत स्थली में कहा कि तुमने ऐसा क्यों कहा हनुमान जी ? उन्होंने कहा कि भगवन! यह राष्ट्रीयता है . इसे आप स्वीकार न करें, विभीषण हमारा मित्र ही बना रहेगा।  इनका लंकापति स्वामी समाप्त हो गया, कुटुंब समाप्त हो गया है, इसलिए भगवन! आप इस निमंत्रण को आप स्वीकार न करो।  राम ने इस वाक्य को स्वीकार कर लिया।  राम ने कहा कि हे लक्ष्मण ! हनुमान जी तो बड़े बुद्धिमान हैं, बड़े कुशल हैं।  तो लंका में चले आये विभीषण जी और राम अपनी अयोध्या को चले गए।  उसी साल में ऐसा मुझे स्मरण है कि हनुमान जी को उन्होंने अपना सर्वोपरि मंत्री, उनको सब प्रकार की उपाधियां राम ने प्रदान कीं।
विचार विनिमय क्या? आधुनिक काल का जगत ऐसा विचित्र है कि हनुमान जैसे महा बुद्धिमानों को, जो समुद्र के तटों पर यंत्र से भ्रमण कर सकता हो, जो सूर्य की किरणों के साथ सूर्य में गमन कर सकता हो, उससे ऊर्जा को पाने वाला हो, ऐसे प्रभु के सेवक को आज पशु की संज्ञा प्रदान की जाती है।  यह महापुरुषों के साथ कैसा खिलवाड़ हो रहा है?
लोक लोकान्तरों की उड़ान
महाराजा हनुमान और गणेश जी दोनों जब ऋषि के द्वार पर पहुंचे तो ऋषि से उन्होंने ये ही कहा कि महाराज! हम वैज्ञानिक बनना चाहते हैं।  महाराजा गणेश जी ने और हनुमान जी ने पादुका नामक यंत्र का निर्माण किया था।  उस पादुका यंत्र में ये यह विशेषता थी कि प्राण शक्ति का उनमें उन्होंने सृजन किया।  पादुका पर विराजमान हो कर के इस पृथ्वी से उड़ान उड़ने लगे और पृथ्वी से उड़ान उड़ते हुए वह मंगल में आये तो मंगल के वैज्ञानिकों ने यंत्र को कटिबद्ध करना चाहा।  उस समय मंगल मंडल में स्वेतताम् वृहिणीक नाम के एक वैज्ञानिक रहते थे।  उन्होंने उस यंत्र को अपने राष्ट्र मंगल में रहने के लिए प्रतीति की और अपने यंत्रों के एक रूपांतर द्वारा उसके ऊपर आक्रमण किया तो हनुमान और गणेश जी दोनों उस यंत्र को लेकर अंतर्ध्यान हो गए और यंत्र को लेकर के वह पृथ्वीमंडल पर आ गए।
वे उस यंत्र में विद्यमान हो कर के बहत्तर मंडलों का भ्रमण किया करते थे।  आज मैं उन महापुरुषों का क्या वर्णन कर सकता हूँ? जिन्होंने अपने जीवन के ऊपर बहुत अनुसन्धान किया।  मैंने तुम्हें कई काल में वर्णन करते हुए कहा है, हनुमान जी की मृत्यु नहीं होती थी।  हनुमान जी के  शरीर की आभा इतनी विचित्र बनी रहती थी।  महाराजा गणेश जी ने एक चुगेत नाम के यंत्र का निर्माण किया था।  उसमे वह विद्यमान होते तो यंत्र इस पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ, मंगल की परिक्रमा करता हुआ सूर्य की किरणों के साथ सूर्य में प्रवेश कर जाता था।

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(पूज्यपाद गुरुदेव कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से )


आपका
भवानंद आर्य 'अनुभव'

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

एक मन्त्र

ॐ वायुरनिल  ममृत मथेदम्   भस्मान्तं शरीरं ।
ओम् कृतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर||यजुर्वेद। ४०।

परमात्मा द्वारा रचित ये शरीर अन्त काल मे भस्म होकर पञ्च तत्वों में  विलीन हो जाने के लिए ही मिला है  ए प्राणी इसलिए तूने जो कर्म कर लिए हैं उन को याद कर। जो कर्म तू अब कर रहा है उन का भी स्मरण कर और भविष्य में तेरे द्वारा किये जाने वाले कर्मों का भी अभी से ही स्मरण कर।

परम पिता परमात्मा द्वारा वेद के रूप में दिए गए इस उपदेश का साफ़ अर्थ ये है कि हमें अपने को इस प्रकार का बना लेना चाहिए कि हमको पुरानी बातें भी याद रहें और अपने वर्त्तमान कर्म को करते हुए हमें बहुत ही सावधानी से कार्य करना चाहिए और उसे याद भी रखना चाहिए के हम क्या कर रहे हैं और उसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है।  तथा भविष्य का ज्ञान भी कर्म करने के लिए आवश्यक है।  हालांकि भविष्य का ज्ञान योग के द्वारा ही सम्भव होता है लेकिन साधारण सामाजिक पद्यतियों से भी ये ज्ञान हो जाता है और प्लान बना कर काम करने से भी भविष्य का ज्ञान पहले ही हो जाता है। 

आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

रविवार, 23 मार्च 2014

दिव्य राम कथा : हनुमान जी

दीप मालिका

आज हम नाना प्रकार की विद्याओं में परिणत होना चाहते हैं क्योंकि वेद के एक एक वेद मंत्र को ले कर के मानव जब गान गाता है तो मानव कृतार्थ हो जाता है, धन्य हो जाता है।  हनुमान दीप मालिका राग को जानते थे, मुझे (श्रृंगी ऋषि ) वह काल स्मरण है | दीपमालिका तो परंपरा से ऋषि मुनियों के मस्तिष्कों में रही है।  जब लंका को विजय करके अयोध्या में राम आ पहुंचे थे तो उस समय हनुमान जी ने राम के समीप ये गान गाया  था।  जब दीपक गान गाने लगे तो अयोध्या में  दीपक ही दीपक प्रकाशित हो गए , तो महाराजा भरत को ये प्रतीत हो गया कि राम अयोध्या में , लंका को विजय कर के आ गए हैं।  क्योंकि हनुमान जी का ये गान है और गान के द्वारा ये दीपमालिका का प्रकाश होता है।  इस विद्या को आदि ब्रह्मा भी जानते थे।  इस विद्या को उनके पुत्र अथर्वा भी जानते थे।  जब अथर्वा इस विद्या का गान गाते थे तो दीपमालिका प्रकाशित हो जाती थीं।  

दीपमालिका का प्रकाश क्या है? दीपमालिका है मानव की वाणी से दीपकों का प्रकाश हो जाना, उसको दीपमालिका कहते हैं।  देवगृह में याग होने को दीपमालिका कहते हैं।  उस अनुपम विद्या का पुनः से अध्ययन करना चाहिए।  उस विद्या के द्वारा मानव कृतार्थ होता है, मानव अपने में ये स्वीकार करता है कि वास्तव में यह विद्या मेरे द्वारा होनी चाहिए, इस विद्या से मेरा मानव जीवन ऊँचा बनेगा।  देखो ये विद्या बिना तप के नहीं आती।  हनुमान जी ने बारह वर्ष तक एकांत निर्जला उपवास करके अन्न को त्याग कर के उन्होंने इस विद्या का अध्ययन किया था।  वे सूर्य विद्या में नाना प्रकार के अणुओं और महा अणुओं को जानते रहते थे मुखारबिंद में इनको अर्पित करना, दीपमालिका का प्रकाश होना हनुमान जी के द्वारा एक अनुपम विद्या थी।  इस विद्या को जानने वाले ऋषिगण सूक्ष्म होते हैं, इस विद्या के लिए तप की आवश्यकता होती है।  अपने मानवीय जीवन को ऊँचा बनाने वाली ये विद्या है।  इस विद्या को धारण करने के पश्चात् ऐसे महापुरुषों का, ऐसे बुद्धिमानों का ऐसे ब्रह्मचारिओं का जन्म कहाँ होता है? कजली वनों में।  माता का कितना आपत्ति काल आ जाता है? परन्तु देखो ! वही माता सुखद को प्राप्त होती है जो निष्ठां को नहीं त्यागती।  मानव वहीँ ऊँचा होता है जो निष्ठा वान होता है, जिसके द्वारा निष्ठां होती है और निष्ठित बन कर के यह संसार ऊँचा बनता है। ऐसी निष्ठा में मानव रमण करता रहता है। 
विवाह
जब ब्रह्मचारी हनुमान ४८ वर्ष का हुआ तो महाराजा सुग्रीव की कन्या (रोहिणी) से उनका संस्कार हुआ । महाराजा सुग्रीव और बाली दोनों विधाता थे।  उस संस्कार के पश्चात् एक कन्या को जन्म देकर उसका निधन हो गया।  उसके निधन होने के पश्चात् उनकी अंतरात्मा ने कहा कि अब प्रकृतिवाद में नहीं जाना है , अब परमात्मा के विज्ञानं को जानना है। 
ब्रह्म फाँस 
जब महाराजा हनुमान लंका में पहुंचे और वह अशोक वाटिका को नष्ट कर रहे थे तो उस समय रावण के पुत्र मेघनाद का जब कुछ वश ना चला तो ब्रह्म फांस में उनको फाँस लिया।  उस समय हनुमान ने कहा था कि मैं  ब्रह्म फांस को नष्ट नहीं कर सकता क्योंकि मेरी मर्यादा नष्ट हो जायेगी।  भौतिक विज्ञान में ब्रह्म फांस रूपी यंत्र भी होता है परन्तु जिस ब्रह्म फांस में हनुमान को फांसा था वह यज्ञोपवीत ही  था। उन्होंने कहा के मैं  इसे नष्ट कर सकता हूँ परन्तु मुझे मर्यादा की आज्ञा नहीं है कि मैं  इसे शांत करूँ, ये मेरा आर्य चिन्ह है।  आर्य उसे कहते हैं जो शुद्ध और पवित्र होता है, जो अपनी मर्यादा की रक्षा करता है। 

आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

शनिवार, 15 मार्च 2014

कर्म


प्यारे पाठकों !  हम जो भी कर्म मन , वचन  या कर्म से करते हैं उसका विपरीत या अनुकूल प्रभाव अन्य प्राणियों पर पड़ता है और उन कर्मों के फलस्वरूप जितना सुख या दुःख दूसरे प्राणियों को होता है वह अन्य जन्मों में  या इस ही जन्म में हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है।  जैसा कि निम्न उक्ति से साफ़ प्रगट है -
अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्मश्शुभाशुभम्। (किये हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है।  
और उन फलों को भुगवाने वाला परमात्मा हमें अपनी न्याय व्यवस्था से हमारे किये कर्मों का फल देता है और वह हमें भोगने पड़ते हैं।  बिना हमारे पापों के फल भोगे हमें उन से मुक्ति मिलनी  सम्भव नहीं है ।  राष्ट्र व्यवस्था में  राजा हमें हमारे शारीरिक कर्मों का फल तो दे सकता है परन्तु मन का फल वह नहीं दे सकता परन्तु परमात्मा तो मन का भी अधिराज है।  उसकी इस व्यवस्था में  हमें पापों (तीन प्रकार के मनसा , वाचा और कर्मणा ) का फल भोगना ही पड़ता है।  
यहाँ एक संदेह होता है कि हम से कुछ पाप अज्ञान में हो जाते हैं इसलिए हम कर्म करना ही त्याग दें तो यहाँ भगवान वेद में कहते हैं कि -
 कुर्वन्नेवेह् कर्माणि जिजॆविशेच्छ तं  समाः एवं त्वयि नान्य थेतॊअस्ति न कर्म लिप्यते नरे । यजुर्वेद। ४०। २
कर्मों को करते ही करते हम सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखें इस  प्रकार हम पाप रूप व पुण्य रूप कर्म भी हममे लिप्यमान नहीं होते।
पहली बात तो यह है कि हम अधिक से अधिक १०० वर्षों तक जियें और जियें भी कर्म करते करते और इस बीच अज्ञानवश हमसे जो पाप हो जाते हैं वे हम में लगातार बसे नहीं रहते अर्थात पुनः वे पाप हमसे नहीं होते और उन पापों का फल भोगने के बाद हम उनसे मुक्त हो जाते हैं।
इसलिए हमें कर्मों को करते ही करते अधिक से अधिक आयु की इच्छा करनी चाहिए और अपने पुण्यों को प्रभु अर्पण करते रहना चाहिए।
वैसे तो कर्म विहीन कोई प्राणी निद्रावस्था के सिवाय रह ही नहीं सकता लेकिन कर्मेन्द्रियों के द्वारा सृजनात्मक, क्रियात्मक व धार्मिक कर्म करने अनिवार्य हैं जो कि हमारे भाग्य के निर्माता हैं।  और भविष्य में हमें सुख प्रदान करते हैं।

आपका
भवानंद आर्य (अनुभव )

जीवन निरर्थक जाने न पाये

हे नाथ अब तो ऐसी कृपा हो जीवन निरर्थक जाने न पाये।
यह मन न जाने क्या क्या दिखाए कुछ बन न पाया मेरे बनाये।

संसार में ही आसक्त रहकर दिन रात अपने मतलब की कह कर।
सुख के लिए लाखों दुःख सहकर ये दिन अभी तक यूँ ही बिताये।

ऐसा जगा दो फिर सो न जाऊं अपने को निष्काम प्रेमी बनाऊं।
मैं आप को चाहूँ और पाऊँ संसार का कुछ भय रह न जाये।

वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं अपने हृदय मैं सदभाव भर लूँ ।
नरतन है साधन भव सिन्धु तर लूँ ऐसा समय फिर आये न आये।

हे दाता हमें निरभिमानी बना दो दारिद्र हर लो दानी बना दो। 
आनंद मय विज्ञानी बना दो मैं हूँ पथिक यह आशा लगाये।




(पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के गाये भजनों से साभार )

आपका
भवानंद आर्य

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

फिर मत कहना कुछ कर न सके

फिर मत कहना कुछ कर न सके।
नहीं जीवन अब तक संवर सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

जब नर तन तुम्हें निरोग मिला।
सत्संगत का भी योग मिला।
फिर भी प्रभु कृपा अनुभव करके।
यदि भव सागर तुम तर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

तुम सत्य तत्व ज्ञानी होकर।
तुम सत्धर्मी मानी होकर।
यदि सरल निरभिमानी होकर।
कामना विमुक्त विचर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

जग में जो कुछ भी पाओगे।
सब यहीं छोड़ कर जाओगे।
पछताओगे यदि तुम अपना।
पुण्यों से जीवन भर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।


जब अंत समय आ जायेगा।
तब क्या तुम से बन पायेगा।
यदि शक्ति समय के रहते ही।
आचार विचार सुधर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।   

होता तब तक न सफल जीवन।
है भार ऱुप सब तन मन धन।
यदि पथिक प्रेम पथ पर चलकर।
अपना या पर दुःख हर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

फिर मत कहना कुछ कर न सके।
यदि भव सागर तुम तर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके। 
कामना विमुक्त विचर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।  
पुण्यों से जीवन भर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।
आचार विचार सुधर न सके। 
फिर मत कहना कुछ कर न सके।
अपना या पर दुःख हर न सके। 
फिर मत कहना कुछ कर न सके।   

(बाबा रामदेव जी द्वारा गए भजनों से साभार )
आपका
भवानंद आर्य

सत्य

परमात्मा कहते हैं कि "मैं सत्यवादी को सत्य सनातन ज्ञानादि धन देता हूँ।  मैं यज्ञ करने वाले को फल प्रदाता और इस संसार में जो कुछ भी है उसका बनाने व धारण करने वाला हूँ अतः मेरे सिवाय मेरे स्थान पर और किसी को मत पूजो, मत मानो, मत जानो।"


आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव '

बुधवार, 12 मार्च 2014

प्रभु तन में रमा करना

प्रभु तन में रमा करना  प्रभु मन में रमा करना।
वैकुण्ठ यहीं तो है इस में ही बसा करना।

हम मोर बनके प्रभु जी नाचा  करेंगे वन में। 
तुम श्याम घटा बन के उस वन में उठा करना।

होकर के हम पपीहा पी पी रटा करेंगे।
तुम स्वाति बूंद बनके प्यासे पे दया करना।

हम दीन दुखी जग में तुम को ही निहारेंगे।
तुम दिव्य ज्योति बन कर नयनों में रहा करना।


(पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के गाये भजनों से साभार  )


 आपका
भवानंद आर्य

हृदयों से दूर क्यों..

हमारे दैनिक जीवन में हम अपने भाई, बहन, माता, पिता, चाचा, मामा, चाची, मामी , पुत्रियों, पुत्रों, पत्नी आदि को प्रेम करते हैं।  मैं आपको इस बात से अवगत कराना चाहता हूँ कि हम किस प्रकार अपना प्रेम खो देते हैं और अपने को दूसरों के हृदयों से दूर कर बैठते हैं।  आजकल के भौतिक वादी युग में  यंत्रों की उन्नति हो चुकी है।  बहुत से वैज्ञानिकों ने वाहनों, मोबाइल , इंटरनेट , पेजर , टेलीफोन आदि की खोज की है।  ये साधन कई प्रकार से हमारे सहायक हैं लेकिन यह मेरा विषय नहीं चल रहा कि ये माध्यम किस प्रकार से हमारे लिए सहायक हैं या किस किस ने क्या क्या खोजा। 
यदि हम प्राचीन काल को विचारें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि किस प्रकार हृदयों से एक दूसरे के निकट थे जब भौतिक प्रगति इतनी अधिक नहीं थी।  परन्तु इन युक्तियों ने हमें हृदयों से दूर कर दिया है, यह सत्य तथ्य है।  हालांकि भौतिक प्रगति नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती लेकिन हमें भौतिक साधनों का प्रयोग अध्यात्मिक उन्नति के लिए करना चाहिए।  यह राय मानव को हमारे ऋषि मुनियों की ओर से है।  ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी अपनी समाधिस्थ अवस्था में कहते हैं कि "हमें अध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के विज्ञानों में विकास करना चाहिए। तब हमारी शीघ्र उन्नति होती है । अध्यात्मिक विज्ञान का पथ भौतिक विज्ञान से ही होकर गुज़रता है।  हमें भौतिक विज्ञानं का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। "
अब मैं इस के बारे में एक तथ्य का उदघाटन कर रहा हूँ-
"जब हम भौतिक साधनों के द्वारा निकट आते हैं तो हम हृदयों से दूर हो जाते हैं। ."
"जब भौतिक साधनों के अभाव में हम दूर होते हैं तब हम हृदयों से पास रहा करते हैं। "
यह ऋषि मुनियों की खोज है अतः बिलकुल उपयुक्त तथ्य है। 
इसलिए इन शब्दों के बारे में विचारो जो कि गूढ़ रहस्य मय तथ्य से युक्त हैं। और इस पोस्ट पर टिपण्णी करना मत भूल जाना कि तुम इस बारे में क्या विचारते हो?
अपने विचार न प्रस्तुत करते हुए मैं ये आप पर छोड़ता हूँ कि आप सोचो और आप अपने विचार बताओ जो आपने इससे सम्बंधित अपने जीवन में अनुभव किये हैं । 
आप लोग टिपण्णी करने के लिए आमंत्रित हो। 
आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

मन में ॐ बसा ले

बोलो ॐ जय जय ॐ जय जय ॐ।

जनम सफल होगा रे बन्दे।
मन में ॐ बसा ले मन में ॐ बसा ले।

बोलो ॐ आजा ॐ आजा ॐ।

ॐ नाम के मोती को सांसों की माला बना ले।
मन में ॐ बसा ले।

ॐ पतित पावन करुणाकर और सदा सुख दाता।
सरस सुभावन अति मन भावन  ॐ  से प्रीत लगा ले।
मन में ॐ बसा ले। 

भोले ॐ आजा ॐ  आजा ॐ ।

मोह माया है झूंठा बंधन त्याग उसे ए प्राणी।
ॐ  नाम की ज्योत जलाकर अपना भाग्य जगा ले।
मन में ॐ बसा ले। 

ॐ  भजन में डूब के अपनी निर्मल कर ले काया।
ॐ  नाम से प्रीत लगा के जीवन पार  लगा ले ।
मन में ॐ बसा ले। 


आपका
भवानंद आर्य


मंगलवार, 11 मार्च 2014

उन्नत जीवन जो करना है

उन्नत जीवन जो करना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो
भव सागर पार उतरना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो

संकट के बादल घिर आयें छा जाये निराशा जो मन में
भयभीत हृदय जब हो जाये मन ॐ जपो मन ॐ जपो

विषयों के जब तूफ़ान उठे मन में चंचलता आ जाये
जब बुद्धि नैय्या  डोल उठे मन ॐ जपो मन ॐ जपो

चिंता की अग्नि धधक उठे मन में व्याकुलता छा जाये
सच्ची निष्ठां आधार बना मन ॐ जपो मन ॐ जपो

पथ दुर्गम हो कितना चाहे और जाना भी हो दूर हमें
अपार हृदय विश्वास लिए मन ॐ जपो मन ॐ जपो

 उन्नत जीवन जो करना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो


(पूज्य स्वामी रामदेव जी द्वारा गाये भजन से)

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आपका अपना
भवानंद आर्य

जब मौत की शहज़ादी आएगी : भजन

साँस एक रोज़ हवाओं में बिखर जाएगी।
तेरी मिट्टी कभी मिट्टी में उतर जायेगी।
किसको मालूम सफ़र ख़त्म कहाँ होता है?
जाने किस मोड़ पे ये रेल ठहर जाएगी।


सज धज कर जब मौत की शहज़ादी आएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

छोटा सा है तू बड़े अरमान हैं तेरे।
मिट्टी का तू सोने के सामान हैं तेरे।
मिट्टी काया मिट्टी में जिस दिन समाएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

धन दौलत से ख़ाली होंगे इक दिन तेरे हाथ.
अंत समय भगवान भजन जायेगा तेरे साथ।
उस दिन तुझको वेद की वाणी याद आयेगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

अच्छे किये हैं कर्म तूने पाया मानव तन।
पाप में क्यूँ डूबा है ये पापी चञ्चल मन।
पाप की नैय्या जिस दिन तुझको रुलाएगी जिस दिन डुबाएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

इस भजन को उर्दू में पढ़ें
आपका
भवानंद आर्य

सोमवार, 10 मार्च 2014

ॐ नाम का दीप जला लेना

जब चारों ओर अँधेरा हो।
ॐ नाम का दीप जला लेना।
चाहे साँझ हो चाहे सवेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

छोड़ दे भी ज़माना तो परवा ना कर।
वो तेरे साथ है तो जहाँ साथ है।
बस ग़ुज़र जाएगा तेरा हर मरहला।
तेरी हर दौड़ में प्रभु का हाथ है।
जितना भी ग़मों ने घेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

तुझको जीना है ये सब्र के घूँट पे।
शुक्र कर तू कि ये ज़िन्दगी मिल गयी।
शुक्र कर तू कि तुझको हज़ारों मिले।
चाहे जीवन में कितनी भी शोहरत मिले।
जिस हाल में तेरा बसेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

इस पोस्ट को उर्दू  में पढ़ें

(पूज्य स्वामी रामदेव जी के द्वारा गाया गया एक भजन )

आपका अपना
भवानंद आर्य

ओ दाता हम पे दया रखना

ओ दाता हम पे दया रखना।
ओ दाता हम पे दया रखना।

तुम ना  होते जग ना होता।
बिखरे मोती कौन पिरोता?
जीव बेचारा तुम बिन ऐसे।
बालक बिन माता।
ओ दाता हम पे दया रखना।

सूरज में ये चमक ना होती।
चाँद में शीतल दमक ना होती।
मेघ ना गिरता जल ना बरसता।
बीज ना उग पाता।
ओ दाता हम पे दया रखना।

तुम हो एक खुदा करें हम विनती।
सुन लो छोटी सी एक विनती।
बिना तुम्हारे किसीके आगे.
झुके नहीं माथा।
ओ दाता हम पे दया रखना।

(स्वामी रामदेव जी द्वारा गाया गया एक भजन )

आपका अपना 
भवानंद आर्य

उसके लिए कोई भक्त अदृश्य नहीं है

परमपिता परमात्मा कहते हैं कि "मेरे लिए कोई भक्त अदृश्य या दूर नहीं है और मैं भी उसके लिए अदृश्य या दूर नहीं हूँ। "
'न मे भक्तः प्रणश्यति'  भगवत गीता में भगवान कृष्ण जी ने परम पिता के दूत के रूप में कहा है। इसलिए यदि हम  परमात्मा के भक्त हो जाते हैं तो वे हमारे लिए उपलब्ध भी हो जाते हैं। परमात्मा के भक्त होने का सुख कहा नहीं जा सकता। जब हम इस संसार के बंधक होते हैं केवल एक ही रास्ता - भक्ति ऐसा है जिससे हमें अतीव आनंद प्राप्त होता है।  यह अति आनंद हम मुक्ति में भी प्राप्त किया करते हैं। 
यदि हम किसी में श्रद्धा या विश्वास रखते हैं तो हमें संदेह कभी नहीं रखना चाहिए जैसा कि कहा भी है-
संदेहात्मा विनश्यति - एक व्यक्ति जो संदेह किया करता है वह नष्ट हो जाता है। 
हमें संदेह नहीं करना चाहिए क्योंकि इस विचारधारा का प्रभाव जब दूसरे पर पड़ता है तो बदले में हमे नकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है।  इसलिए हमें अगर अपने को उन्नत बनाना है तो पहले ही खोज लेने के बाद हमें श्रद्धा बनाये रखनी चाहिए और संदेह को कोई स्थान नहीं देना चाहिए। 
परमात्मा, व्यक्तियों व वस्तुओं के बारे में हमें पहले ही खोज करलेनी चाहिए और उसके बाद किसी प्रकार का संदेह मन में नहीं आने देना चाहिए।  केवल तभी हम अपनी श्रद्धा व आवश्यकताओं में सफल हो पाएंगे। 
अब मैं  परमात्मा से वार्तालाप का एक उदाहरण पोस्ट "Kalp Vriksha " से ले रहा हूँ -

जब परमात्मा ने यह ब्रह्माण्ड बनाया सभी आत्माओं और देवताओं ने कहा , "हे प्रभु! आपने ये जगत किस प्रकार का बनाया है?" तो परमात्मा ने उत्तर दिया , "ये संसार मैंने कल्पवृक्ष की भांति बनाया है। जो भी कल्पना तुम आज  करोगे वह ही भविष्य में  होगा और वहीं वस्तु तुम्हें प्राप्त हो जायेगी।  लेकिन कल्पना यथार्थ होनी चाहिए तथा संकल्प महान, सदबुद्धि से पूर्ण होना चाहिए। ताकि जिससे मानव जीवन पवित्र बन जाए। "

सम्बंधित पोस्ट : कल्प वृक्ष (अंग्रेजी में )


आपका अपना 
भवानंद आर्य

शनिवार, 8 मार्च 2014

मेरे भीतर बहुत क्रोध है

मेरे भीतर बहुत क्रोध है।
करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

प्रिय की ये मीठी मुस्कान।
भरती क्यूँ जीवन में प्रान।
फिर क्यों बिछड़ गए हैं मीत।
कैसा ये रौरव संगीत।
गति का कैसा गतिरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

मदमस्त और मधुमस्त बसंत।
लेकर आता क्यूँ है अंत।
तपती सूरज की ये किरनें।
फिर है ग्रीष्म ऋतु क्यों लाती।
इसका मुझको नहीं बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

उलटे सीधे चक्र चलाकर।
किया इकट्ठा धन ये लाकर।
घर भर डाले तुमने अपने।
मिटे ग़रीबों के सब सपने।
होना इस का भी विरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

प्रभु से प्रीत लगा कर देखी।
यहीं पे जन्नत पा कर देखी।
अब क्यूँ दूर हुए हो आप।
मैंने कैसा किया था पाप।
प्रभु का ही ये सृष्टि बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

(पूज्य पिताजी की क़लम से )

इस कविता को उर्दू में पढ़ें
आपका अपना
भवानंद आर्य 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

प्रभु तेरी शरण में

कोशिश की पाने की बहुत इस दुनिया को।
कुछ ना मिला पर कुछ ना मिला।
चाहा बहुत इस दुनिया को इस दुनिया को।
प्यार किया जिनसे और माना अपना।
वे हो गए बेगाने से बेगाने से।

बसाया जिनको दिल में।
तोड़ दिया उन्होंने दिल तोड़ दिया।
छोड़ दिया बीच भंवर में छोड़ दिया।
सबका तो नहीं पर बहुतों का है दर्द यहीं।

लेकिन प्रभु तू ही मेरा ऐसा है।
 जो कभी दुःख में भी साथ नहीं छोड़े।
जब जग में क़दम डोलें मेरे।
है तू ही प्रभो बचाता।

विकट संकट में भी तू ही है पार लगाता।

जब कभी राह नज़र न आये।
चारों ओर अँधेरा छा जाये।
तू ही है आसरा प्रभु उस समय तू ही है।
प्रभु तेरी शरण में हूँ।

प्रेरणा : स्वामी रामदेव जी के भजन से

आपका
भवानंद आर्य

बुधवार, 5 मार्च 2014

एक तेरी दया का दान मिले: भजन

 ॐ 
एक तेरी दया का दान मिले,
एक तेरा सहारा मिल जाये ।
भव सागर में बहती मेरी,
नैय्या को किनारा मिल जाये ।

जीवन  की टेढ़ी राहों पर,
चलकर न तुझको जान सका ।
आशाओं की झोली भर जाये,
एक तेरा द्वारा मिल जाये ।
एक तेरी दया का दान मिले।

मैं नर हूँ तुम नारायण हो,
इतना तो भेद ज़रूरी है ।
यदि शरण तेरी मैं पा ना सका,
नर तन तो दुबारा मिल जाये ।
एक तेरी दया का दान मिले।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

श्री कृष्ण भगवान की एक कहानी

भगवान  कृष्ण प्रतिदिन यज्ञ किया करते थे । एक बार भगवान कृष्ण यज्ञ कर रहे थे । यज्ञ करने के बाद वह यज्ञ वेदी के पास बैठे हुए थे और यह विचार रहे थे कि इस यज्ञ का क्या प्रभाव पड़ा है । इतने में  ही रुक्मिणी उन के पास आयीं और बोलीं, "हे देव ! इस यज्ञ वेदी के सामने आप क्या कर रहे हो ?" भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया, "हे देवी ! मैं यह सोच रहा हूँ कि इस यज्ञ ने वायुमंडल पर क्या प्रभाव डाला है? मैं सोच रहा हूँ कि उन तरंगों का जो यज्ञ  से बनी हैं वे कहाँ प्रभाव डालती हैं? मैं इस बारे में  अनुसन्धान कर रहा हूँ । " रुक्मिणी ने फिर प्रश्न किया, "हे देव ! क्या मेरे हृदय से जो तरंगें निकल रही हैं उसका भी आपको ज्ञान है ?" भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया ,"हे देवी! वह समय भी आयेगा परन्तु इस समय मैं यह अनुसन्धान कर रहा हूँ और इसको मैं रोकना नहीं चाहता।  यज्ञ संसार का सर्व श्रेष्ठ कर्म है । यज्ञ ऋषियों और मुनियों की खोज है। यह जानना आवश्यक है कि यह वातावरण पर क्या प्रभाव डालता है और इस की तरंगें कहाँ पर जाती हैं? यह वह कर्म है जिसके द्वारा हम परमात्मा तक पहुँच सकते हैं और यह हमें मुक्ति तक ले जाता है। इसीलिए मैं इस कर्म में व्यस्त हूँ ।" रुक्मिणी इस बात से बहुत प्रभावित हुईं और उनहोंने भी भगवान कृष्ण के साथ साथ प्रतिदिन यज्ञ करना प्रारम्भ कर दिया । 

भवानंद आर्य

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

पत्नी के बारे में चिन्ता

जब हम घर से बाहर होते हैं तब हमें ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जो कि आकर्षण व मोह का कारण  बनते हैं लेकिन यदि हम यह कहें कि हम एक विशेष पत्नी या प्रेमिका को प्रेम करते हैं तो यह सत्य नहीं है। 

वास्तविक आदर्श प्रेम सीता राम जी का और रुक्मिणी कृष्ण जी का कहा जा सकता है । यदि हम अपनी पत्नी माता रुक्मिणी या माता सीता जैसी चाहते हैं तो हमें सबसे पहले अपने को भगवान कृष्ण या भगवान राम बनाना होगा । तब हमें मनचाही पत्नी मिल पायेगी । 

 हममें  से अधिकतर किसी एक विशेष के प्रति पूरा प्रेम नहीं रखते । क्योंकि जब हम अपने भूतकाल को देखते हैं, बहुत सी स्त्रियां हमारे जीवन में मन, वाणी व कर्म में  रही होती हैं । अब माना हम एक स्त्री को प्रेम करते हैं तो तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा प्रेम राम सीता या रुक्मिणी(सत्यभामा) कृष्ण की तरह है जिन्होंने अपने पूरे  जीवन में  केवल एक स्त्री को ही चाहा । यद्यपि मैं यह कह सकता हूँ कि इस समय आप ऐसे ही प्रेम करते होंगे जैसे राम जी ने माता सीता को चाहा था । लेकिन तुम यह कैसे कह सकते हो कि अब से कुछ महीने या वर्ष बाद वह तुम्हें ऐसे ही चाहेगी? क्या यह सम्भव नहीं है कि वह किसी और को भी तुम्हारे साथ साथ इसी प्रकार ही चाहे? इसलिए मैं कहता हूँ कि प्रेम एक आंशिक अहसास है जो कि बहुत लम्बी अवधि या अनंत समय तक नहीं चल सकता ।

माना आपकी पत्नी या प्रेमिका बस में  सफ़र कर रही है तो तुम उसको कैसे रोक पाओगे कि वह अपने सह यात्री के प्रति कोई कामुक भाव न रखे ।

इसलिए प्यारे मित्रों, पाठकों मैं इस बारे मैं धनात्मक सोचता हूँ और मैं कहता हूँ कि हम सभी परमात्मा के प्यारे पुत्र पुत्रियाँ  हैं और हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार रूपी मधु चटाया जा रहा है । और हम  सभी को मुक्ति के पथ पर आगे को बढ़ना है। तो चलो उस मुक्ति का भी प्रयास करें जहाँ  कोई सांसारिक दुःख नहीं होता ।
प्रसन्नता के साथ साथ दुःख से भरे इस संसार में हम  योगी बनें और अपने प्रेमी की शुभ कामनाओं को पूर्ण करें । चलो अपने प्रेमी का वफादार सेवक बनें । यह तभी सम्भव है जब हम योगी बनेंगे । यह यौगिक क्रान्ति का समय चल रहा है । इसलिए चलो योग के मार्ग को पकड़ें । हमें मन में रखना चाहिए कि हमें दूसरों की रक्षा करनी चाहिए तभी हमारी भी रक्षा हो पायेगी वर्ना हमारी रक्षा करने वाला कोई भी नहीं मिलपाएगा।

हमें यह भी  ध्यान रखना चाहिए कि हमें शरीर भी वस्त्र की भांति मिला हुआ है जिसको एक दिन नष्ट होना है । इसलिए प्रेम भी बहुत अधिक समय तक नहीं हो सकता । हाँ परमात्मा का प्रेम सदैव रहता है ।

योग का मतलब 'अप्राप्त की प्राप्ति ' है जो कि गीता में बताया गया है।

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१. मोह

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आपका
भवानंद आर्य 'अनुभव'

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

मोह

ॐ 
संसार में पांच तरह की चीज़ें होती हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जिनकी वजह से हमारा जीवन आसानी से कट जाता है । परन्तु जो इन पांच पर नियंत्रण करता है वह भगवान कृष्ण की तरह महा योगी बन जाता है । यह एक विचित्र अनुभव है जो मैं आप के साथ बाँट रहा हूँ । हम जानते हैं कि विचार व भावनाएं हमारे ह्रदय से बनती हैं । वास्तव में हमारे शरीर में दो स्थानों पर मन होता है ।  एक हृदय में व दूसरा मस्तिष्क में । मन प्रकृति का सबसे सूक्ष्म कण है और यह दस इंद्रियों के बाद ग्यारहवीं इन्द्री माना जाता हैं । यह मानव को दिया एक अनमोल तोहफा है । जब विचारने  से इसमें कम्पन होता है तो तरंगे बनती हैं । जिसके बारे में हम सोचते हैं वे तरंगे उसही की ओर जाती हैं । इसलिए यदि हम किसी के बारे में प्रेम, मोह रखते हैं, वह निश्चित ही उसका प्रभाव महसूस करता है । हमें मस्तिष्क में रखना चाहिए कि यह अमूल्य तोहफा जीवों को परमात्मा के द्वारा, अपनी उदारता के कारण दिया गया होता है। परमात्मा सर्वव्यापी व सर्वज्ञ है परन्तु हम मानव ऐसे नहीं हैं । हमारी क्षमता व स्थान निश्चित है क्योंकि हम एकदेशी हैं । लेकिन इस मन की सहायता  से हम अपने को दूर के लोगों व स्थानों से जोड़ सकते हैं । यहीं वजह है कि इस मन की सहायता से योगी सितारों आदि पर घूमा करते हैं और किसी भी दूर देश की बात का पता तुरंत लगा लेते हैं ।

 अब मैं इस बारे में अपना विचार उदघाटित कर रहा हूँ । पहले कही गयी बातें महापुरुषों के तथ्यों के आधार पर कही गयी हैं । मेरा अपना कथन यह है कि किसी के प्रति प्रेम दूसरे द्वारा भी महसूस किया जाता है यदि हम वास्तव में दूसरे के प्रति रखते हैं ।  परन्तु यह मोह भविष्य में बहुत दुःख देता हैं क्योंकि प्रेम का फल दुःख होता है ।
 इसलिए प्यारे पाठकों प्रेम का आनंद लें लेकिन यह ना  भूलें कि तुम्हें भी इसका दुःख रूपी फल भोगना पड़ेगा यह निश्चित है ।

आपका
भवानंद आर्य "अनुभव"

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

परमात्मा को पत्र

प्यारे व आदरणीय परमपिता परमात्मा,

देखो भगवान जी आपका सही सही ज्ञान हमें नहीं है लेकिन जितना मैंने आपके बारे में विद्वानों की पुस्तकों से जाना है आप का  मुख्य नाम ॐ है ।
नमस्ते प्रभु ,

आज मैं संकट में हूँ मुझे तीन वरदान और एक आशीर्वाद चाहिए कि
वरदान
१. मेरी आजीविका कम से कम २००००  मासिक बंध जाये जिससे कि मैं श्रुति को भी खुद ही पढ़ा पाऊँ ।
२. मुझे उन नीच मेरी पत्नी राधा , सालो और उस सूअर ससुर के झूंठे मुकदमों से मुक्ति मिल जाये । (Ati sheeghr Pura Karo Is Kamna Ko)
*३. मेरी भी कोई अपनी प्रेमिका हो जो पूरे जीवन भर मेरा साथ निभाए लेकिन मेरे ही जैसी हो । (Ye Kamna Puri Nhin Honi Chahie)
आशीर्वाद
प्रभु आशीर्वाद दो कि  मैं अध्यात्मिक  व भौतिक दोनों उपलब्धियाँ भरसक कर पाऊँ और योग में व ज्ञान में ऐसी उन्नति करूँ कि अपने विष्णु रूप को जानने में सक्षम हो पाऊँ ।

और प्रभु आशीर्वाद के साथ साथ हमें श्राप भी ज़रूर देना क्योंकि मैं इतना अच्छा नहीं हूँ जितना दुनिया मेरे बारे में सोचती है । पर आपको तो सब पता है । अच्छाई के साथ साथ इतनी कमियां हैं मुझमें कि जी करता है कि अपनी सारी पोल दुनिया के सामने खोल दूँ । बस भगवान जी इतने लिखे को ही बहुत समझना ।

धन्यवाद प्रभु जी
प्रभु जी इतनी सी दया करना हम को भी तुम्हारा प्यार मिले ।

इस पोस्ट को इंग्लिश में  पढ़ें

आपका अपना
अनुभव शर्मा या भवानंद

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

मृत्यु की मृत्यु


जब हम यज्ञ करते हैं तो सामग्री अग्नि निगल लेती है, अग्नि को  जल निगल लेता है, जल वायु द्वारा , वायु अंतरिक्ष द्वारा निगली जाती है। और तब यह ब्रह्म में स्थित हो जाता है । परमात्मा हमारे यज्ञ व श्रद्धा  को स्वीकार करते हैं जब हम यज्ञ करते हैं । हमें परमात्मा के प्रति व उसकी रचना के प्रति बहुत ही गहरी श्रद्धा होनी चाहिए क्योंकि परमात्मा हमारी अन्तर्निहित भावनाओं का भोजन करते हैं । 
संसार में हम इस बारे में चिंतित रहते हैं कि मृत्यु की मृत्यु क्या है? पूर्व में एक ऋषि द्वारा यह कहा गया है कि ब्रह्म मृत्यु की मृत्यु है । कोई ब्रह्मवेत्ता जो यह जानता है कि ब्रह्म मृत्यु की मृत्यु है वह कभी मृत्यु से नहीं डरता । उसके लिए मृत्यु कुछ नहीं होती । वास्तव में अज्ञान में ही मृत्यु होती है । ज्ञान में सदैव जीवन होता है । 

(विचार पूज्यपाद ब्र 0 कृष्ण दत्त जी के प्रवचनो से लिए गए हैं )
आपका 
भवानंद आर्य

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

ओ सुप्रीम पावर गोड!


परमात्मा सदा अदृश्य है,
वह है लेकिन अदृष्ट है ।
कोई भी सूक्ष्मदर्शी आत्मा  को ही नहीं देख सकता ,
तो फिर परमात्मा को देखना कैसे सम्भव है?

वह है वायुवत, आकाशवत।
जिसे अनुभव तो हैं कर सकते पर देख नहीं सकते।
जानते उसे हैं  समाधिस्थ बुद्धि से।  
यही तथ्य है मेरा मत ।

उसकी प्रतिमा बन नहीं सकती ।
न वह मानव रूप में कभी जन्म लेता।
वह अपने समस्त काम पूरे खुद है कर सकता,
जैसे रावण या कंस को मारना,
बिना जन्म लिए या मृत्यु को पाए
क्योंकि वह है सर्वशक्तिमान।


आदरणीय मैं आपको हूँ प्रेम करता।
आप माँ  दुर्गा हो, आप माँ काली हो,
आप पिता राम हो, आप पिता कृष्ण हो,
आप पिता शिव हो, आप पिता ब्रह्मा हो।

भगवान कृष्ण , भगवान राम, भगवान् ब्रह्मा, भगवान् शिव,
और मेरे गुरु थे बहुत ही ऊँचे लेकिन,
तुम राम हो क्योंकि हो सर्वव्यापी।
तुम कृष्ण हो क्योंकि  हो महायोगी । 
तुम ब्रह्मा हो क्योंकि तुमने है ब्रह्माण्ड बनाया ।
आपका मुख्य निज नाम ॐ है क्योंकि आप हमारे लिए हो करते सब कुछ।

ओ प्यारे पिता मैं आपको हूँ प्रेम करता ।
मैं हूँ लेना चाहता आपके कुछ गुण ।
और मैं प्राप्त कर लूँगा निश्चित
यदि चाहो आप,
वरन  कोई भी मेरी मदद नहीं कर सकता
यदि चाहो नहीं आप ।
मेरा है नहीं कोई
क्योंकि आप चाहते हो ऐसा ही ।

परन्तु पृथ्वी मेरी है।
अग्नि मेरी है।
वायु  मेरी है।
आकाश मेरा है।
जल मेरा है।
जो मैं माँगूँगा आपसे मिलेगा मुझे , मैं जानता  हूँ।

ओ प्यारे पिता!
ओ महानतम कवि! जिसने सबसे बड़ी कविता वेद है बनाया,
मैं भी एक छोटा कवि बनना हूँ चाहता।
मैं जानता हूँ कि आप सब कुछ हैं समझते जो मैं चाहता हूँ!
इसलिए कृपया मुझे वो सब दो,
जो मेरी हैं आवश्यकताएँ।
परन्तु मुझे ऐसा बना देना प्रभु!
कि मुझे अवसर मिले ही नहीं,
कोई बुरा कर्म करने का !

मूल कविता पढ़ें , अंग्रेजी में
आपका
भवानंद आर्य "अनुभव"
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