शनिवार, 29 मार्च 2014

योगी , वैज्ञानिक व वीर : हनुमान


महाराजा हनुमान आकुंचन के ऊपर अध्ययन करते थे तो उनकी आकुंचन शक्ति बहुत बलवान हो गयी थी।  मुझे स्मरण आता रहता है कि  त्रेता के काल से महाराजा हनुमान आकुंचन शक्ति के अनुसार अपने शरीर को सूक्ष्म बनाने व विशाल बनाने का अनुसन्धान करते रहते थे।  आकुंचन की ये गतियाँ योगाभ्यास के द्वारा ही आती हैं।  आकुंचन क्रिया को जानकर मानव को आश्चर्य होता है। 

हनुमान महान योगी, महान ब्रह्मचारी, तार्किक व महाराजा राम के मंत्री थे।  उन्होंने सूर्य के महान विज्ञानं को जाना था। उसके एक एक कण को जाना था।  वह विज्ञान उनके कंठ था।  इसलिए यह कहना यथार्थ है कि हनुमान ने सूर्य को नहीं, उसके महान गुणों और विज्ञान को अपने मुखारविन्द में अर्पण  कर लिया था। हनुमान ने यौगिक क्रियाओं से समुद्र को पार किया था। 

महाराजा हनुमान उदान - प्राण से कूर्म और कृकल प्राण का मिलान करना जानते थे, जिस विधि से इस शरीर को स्थूल और सूक्ष्म किया जाता है।  प्रकृति की पांच प्रकार की गतियाँ मानी जाती हैं - आकुंचन , प्रसारण , ऊर्ध्वा , ध्रुव और गमन।  इन पांचों प्रकार की गतियों को जानने वाला योगेश्वर अपने को स्थूल रूपों में ला सकता है एवं आकुंचन द्वारा सूक्ष्म बना सकता है।  हनुमान आकुंचन द्वारा सुरसा के मुख में परिणित हो गए थे। 

हनुमान सूर्य विद्या के प्रकांड पंडित थे।  एक बार राम ने हनुमान से पूछा कि मैं जानना चाहता हूँ कि सूर्य की किरणों से रोगों का विनाश कैसे होता है ? हनुमान ने कहा कि सूर्य की सहस्रों प्रकार की किरणे होती हैं किन्तु मुख्य किरणें सात होती हैं।  इन किरणों में विभिन्न प्रकार के रंग जैसे श्वेत , हरित , रक्त आदि होते हैं।  मानव के शरीर में यह पांच महाभूत ही कार्य कर रहे हैं।  जब मानव रुग्ण हो जाता है तो उसके शरीर  में  इन्ही महाभूतों में से किसी का प्रभाव सूक्ष्म हो जाता है।  जो तत्व मानव के शरीर में सूक्ष्म हो जाता है उसी प्रकार की किरणों को लाया जाता है।  वह किरण मानव के शरीर में रुग्ण स्थान पर प्रभाव डालती है तथा रोग शांत हो जाता है।

सीता को खोजने के लिए महाराज हनुमान अपने यान 'पदकेतु' में विद्यमान होकर लंका में पहुंचे।  वे कितने विज्ञानमय थे ।  'सूर्यकेत' नाम की पोथी का का निर्माण महाराजा हनुमान ने किया था।  सूर्य विज्ञान के ऊपर नाना रूपों में उन्होंने उस पोथी का निर्माण किया  महाभारत के पश्चात् जैन काल में वह अग्नि के मुखारविंद में परिणित कर दी गयी।

कूटनीतिज्ञ
 लंका को विजय करने के पश्चात् विभीषण राम के समीप आये और राम से यह कहा कि हे भगवन! आप यहाँ से अब प्रस्थान करेंगे , आपने बड़ा अनुग्रह किया है, अब मेरे यहाँ अन्न ग्रहण करो।  आपको निमंत्रण देने आया हूँ।  राम की इच्छा बन गयी थी कि हम अन्न ग्रहण कर सकेंगे।  परन्तु देखो , जब हनुमान जी उनके मध्य में गए तो हनुमान जी ने कहा कि इस पर हम विचार करेंगे।  उन्होंने जब ऐसा कहा तो राम ने अपने वाक्यों को आगे उच्चारण नहीं किया।  राम ने एकांत स्थली में कहा कि तुमने ऐसा क्यों कहा हनुमान जी ? उन्होंने कहा कि भगवन! यह राष्ट्रीयता है . इसे आप स्वीकार न करें, विभीषण हमारा मित्र ही बना रहेगा।  इनका लंकापति स्वामी समाप्त हो गया, कुटुंब समाप्त हो गया है, इसलिए भगवन! आप इस निमंत्रण को आप स्वीकार न करो।  राम ने इस वाक्य को स्वीकार कर लिया।  राम ने कहा कि हे लक्ष्मण ! हनुमान जी तो बड़े बुद्धिमान हैं, बड़े कुशल हैं।  तो लंका में चले आये विभीषण जी और राम अपनी अयोध्या को चले गए।  उसी साल में ऐसा मुझे स्मरण है कि हनुमान जी को उन्होंने अपना सर्वोपरि मंत्री, उनको सब प्रकार की उपाधियां राम ने प्रदान कीं।
विचार विनिमय क्या? आधुनिक काल का जगत ऐसा विचित्र है कि हनुमान जैसे महा बुद्धिमानों को, जो समुद्र के तटों पर यंत्र से भ्रमण कर सकता हो, जो सूर्य की किरणों के साथ सूर्य में गमन कर सकता हो, उससे ऊर्जा को पाने वाला हो, ऐसे प्रभु के सेवक को आज पशु की संज्ञा प्रदान की जाती है।  यह महापुरुषों के साथ कैसा खिलवाड़ हो रहा है?
लोक लोकान्तरों की उड़ान
महाराजा हनुमान और गणेश जी दोनों जब ऋषि के द्वार पर पहुंचे तो ऋषि से उन्होंने ये ही कहा कि महाराज! हम वैज्ञानिक बनना चाहते हैं।  महाराजा गणेश जी ने और हनुमान जी ने पादुका नामक यंत्र का निर्माण किया था।  उस पादुका यंत्र में ये यह विशेषता थी कि प्राण शक्ति का उनमें उन्होंने सृजन किया।  पादुका पर विराजमान हो कर के इस पृथ्वी से उड़ान उड़ने लगे और पृथ्वी से उड़ान उड़ते हुए वह मंगल में आये तो मंगल के वैज्ञानिकों ने यंत्र को कटिबद्ध करना चाहा।  उस समय मंगल मंडल में स्वेतताम् वृहिणीक नाम के एक वैज्ञानिक रहते थे।  उन्होंने उस यंत्र को अपने राष्ट्र मंगल में रहने के लिए प्रतीति की और अपने यंत्रों के एक रूपांतर द्वारा उसके ऊपर आक्रमण किया तो हनुमान और गणेश जी दोनों उस यंत्र को लेकर अंतर्ध्यान हो गए और यंत्र को लेकर के वह पृथ्वीमंडल पर आ गए।
वे उस यंत्र में विद्यमान हो कर के बहत्तर मंडलों का भ्रमण किया करते थे।  आज मैं उन महापुरुषों का क्या वर्णन कर सकता हूँ? जिन्होंने अपने जीवन के ऊपर बहुत अनुसन्धान किया।  मैंने तुम्हें कई काल में वर्णन करते हुए कहा है, हनुमान जी की मृत्यु नहीं होती थी।  हनुमान जी के  शरीर की आभा इतनी विचित्र बनी रहती थी।  महाराजा गणेश जी ने एक चुगेत नाम के यंत्र का निर्माण किया था।  उसमे वह विद्यमान होते तो यंत्र इस पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ, मंगल की परिक्रमा करता हुआ सूर्य की किरणों के साथ सूर्य में प्रवेश कर जाता था।

इस प्रवचन को अंग्रेजी में पढ़ें

(पूज्यपाद गुरुदेव कृष्णदत्त जी के प्रवचनों से )


आपका
भवानंद आर्य 'अनुभव'

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

एक मन्त्र

ॐ वायुरनिल  ममृत मथेदम्   भस्मान्तं शरीरं ।
ओम् कृतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर||यजुर्वेद। ४०।

परमात्मा द्वारा रचित ये शरीर अन्त काल मे भस्म होकर पञ्च तत्वों में  विलीन हो जाने के लिए ही मिला है  ए प्राणी इसलिए तूने जो कर्म कर लिए हैं उन को याद कर। जो कर्म तू अब कर रहा है उन का भी स्मरण कर और भविष्य में तेरे द्वारा किये जाने वाले कर्मों का भी अभी से ही स्मरण कर।

परम पिता परमात्मा द्वारा वेद के रूप में दिए गए इस उपदेश का साफ़ अर्थ ये है कि हमें अपने को इस प्रकार का बना लेना चाहिए कि हमको पुरानी बातें भी याद रहें और अपने वर्त्तमान कर्म को करते हुए हमें बहुत ही सावधानी से कार्य करना चाहिए और उसे याद भी रखना चाहिए के हम क्या कर रहे हैं और उसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है।  तथा भविष्य का ज्ञान भी कर्म करने के लिए आवश्यक है।  हालांकि भविष्य का ज्ञान योग के द्वारा ही सम्भव होता है लेकिन साधारण सामाजिक पद्यतियों से भी ये ज्ञान हो जाता है और प्लान बना कर काम करने से भी भविष्य का ज्ञान पहले ही हो जाता है। 

आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

रविवार, 23 मार्च 2014

दिव्य राम कथा : हनुमान जी

दीप मालिका

आज हम नाना प्रकार की विद्याओं में परिणत होना चाहते हैं क्योंकि वेद के एक एक वेद मंत्र को ले कर के मानव जब गान गाता है तो मानव कृतार्थ हो जाता है, धन्य हो जाता है।  हनुमान दीप मालिका राग को जानते थे, मुझे (श्रृंगी ऋषि ) वह काल स्मरण है | दीपमालिका तो परंपरा से ऋषि मुनियों के मस्तिष्कों में रही है।  जब लंका को विजय करके अयोध्या में राम आ पहुंचे थे तो उस समय हनुमान जी ने राम के समीप ये गान गाया  था।  जब दीपक गान गाने लगे तो अयोध्या में  दीपक ही दीपक प्रकाशित हो गए , तो महाराजा भरत को ये प्रतीत हो गया कि राम अयोध्या में , लंका को विजय कर के आ गए हैं।  क्योंकि हनुमान जी का ये गान है और गान के द्वारा ये दीपमालिका का प्रकाश होता है।  इस विद्या को आदि ब्रह्मा भी जानते थे।  इस विद्या को उनके पुत्र अथर्वा भी जानते थे।  जब अथर्वा इस विद्या का गान गाते थे तो दीपमालिका प्रकाशित हो जाती थीं।  

दीपमालिका का प्रकाश क्या है? दीपमालिका है मानव की वाणी से दीपकों का प्रकाश हो जाना, उसको दीपमालिका कहते हैं।  देवगृह में याग होने को दीपमालिका कहते हैं।  उस अनुपम विद्या का पुनः से अध्ययन करना चाहिए।  उस विद्या के द्वारा मानव कृतार्थ होता है, मानव अपने में ये स्वीकार करता है कि वास्तव में यह विद्या मेरे द्वारा होनी चाहिए, इस विद्या से मेरा मानव जीवन ऊँचा बनेगा।  देखो ये विद्या बिना तप के नहीं आती।  हनुमान जी ने बारह वर्ष तक एकांत निर्जला उपवास करके अन्न को त्याग कर के उन्होंने इस विद्या का अध्ययन किया था।  वे सूर्य विद्या में नाना प्रकार के अणुओं और महा अणुओं को जानते रहते थे मुखारबिंद में इनको अर्पित करना, दीपमालिका का प्रकाश होना हनुमान जी के द्वारा एक अनुपम विद्या थी।  इस विद्या को जानने वाले ऋषिगण सूक्ष्म होते हैं, इस विद्या के लिए तप की आवश्यकता होती है।  अपने मानवीय जीवन को ऊँचा बनाने वाली ये विद्या है।  इस विद्या को धारण करने के पश्चात् ऐसे महापुरुषों का, ऐसे बुद्धिमानों का ऐसे ब्रह्मचारिओं का जन्म कहाँ होता है? कजली वनों में।  माता का कितना आपत्ति काल आ जाता है? परन्तु देखो ! वही माता सुखद को प्राप्त होती है जो निष्ठां को नहीं त्यागती।  मानव वहीँ ऊँचा होता है जो निष्ठा वान होता है, जिसके द्वारा निष्ठां होती है और निष्ठित बन कर के यह संसार ऊँचा बनता है। ऐसी निष्ठा में मानव रमण करता रहता है। 
विवाह
जब ब्रह्मचारी हनुमान ४८ वर्ष का हुआ तो महाराजा सुग्रीव की कन्या (रोहिणी) से उनका संस्कार हुआ । महाराजा सुग्रीव और बाली दोनों विधाता थे।  उस संस्कार के पश्चात् एक कन्या को जन्म देकर उसका निधन हो गया।  उसके निधन होने के पश्चात् उनकी अंतरात्मा ने कहा कि अब प्रकृतिवाद में नहीं जाना है , अब परमात्मा के विज्ञानं को जानना है। 
ब्रह्म फाँस 
जब महाराजा हनुमान लंका में पहुंचे और वह अशोक वाटिका को नष्ट कर रहे थे तो उस समय रावण के पुत्र मेघनाद का जब कुछ वश ना चला तो ब्रह्म फांस में उनको फाँस लिया।  उस समय हनुमान ने कहा था कि मैं  ब्रह्म फांस को नष्ट नहीं कर सकता क्योंकि मेरी मर्यादा नष्ट हो जायेगी।  भौतिक विज्ञान में ब्रह्म फांस रूपी यंत्र भी होता है परन्तु जिस ब्रह्म फांस में हनुमान को फांसा था वह यज्ञोपवीत ही  था। उन्होंने कहा के मैं  इसे नष्ट कर सकता हूँ परन्तु मुझे मर्यादा की आज्ञा नहीं है कि मैं  इसे शांत करूँ, ये मेरा आर्य चिन्ह है।  आर्य उसे कहते हैं जो शुद्ध और पवित्र होता है, जो अपनी मर्यादा की रक्षा करता है। 

आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

शनिवार, 15 मार्च 2014

कर्म


प्यारे पाठकों !  हम जो भी कर्म मन , वचन  या कर्म से करते हैं उसका विपरीत या अनुकूल प्रभाव अन्य प्राणियों पर पड़ता है और उन कर्मों के फलस्वरूप जितना सुख या दुःख दूसरे प्राणियों को होता है वह अन्य जन्मों में  या इस ही जन्म में हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है।  जैसा कि निम्न उक्ति से साफ़ प्रगट है -
अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्मश्शुभाशुभम्। (किये हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है।  
और उन फलों को भुगवाने वाला परमात्मा हमें अपनी न्याय व्यवस्था से हमारे किये कर्मों का फल देता है और वह हमें भोगने पड़ते हैं।  बिना हमारे पापों के फल भोगे हमें उन से मुक्ति मिलनी  सम्भव नहीं है ।  राष्ट्र व्यवस्था में  राजा हमें हमारे शारीरिक कर्मों का फल तो दे सकता है परन्तु मन का फल वह नहीं दे सकता परन्तु परमात्मा तो मन का भी अधिराज है।  उसकी इस व्यवस्था में  हमें पापों (तीन प्रकार के मनसा , वाचा और कर्मणा ) का फल भोगना ही पड़ता है।  
यहाँ एक संदेह होता है कि हम से कुछ पाप अज्ञान में हो जाते हैं इसलिए हम कर्म करना ही त्याग दें तो यहाँ भगवान वेद में कहते हैं कि -
 कुर्वन्नेवेह् कर्माणि जिजॆविशेच्छ तं  समाः एवं त्वयि नान्य थेतॊअस्ति न कर्म लिप्यते नरे । यजुर्वेद। ४०। २
कर्मों को करते ही करते हम सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखें इस  प्रकार हम पाप रूप व पुण्य रूप कर्म भी हममे लिप्यमान नहीं होते।
पहली बात तो यह है कि हम अधिक से अधिक १०० वर्षों तक जियें और जियें भी कर्म करते करते और इस बीच अज्ञानवश हमसे जो पाप हो जाते हैं वे हम में लगातार बसे नहीं रहते अर्थात पुनः वे पाप हमसे नहीं होते और उन पापों का फल भोगने के बाद हम उनसे मुक्त हो जाते हैं।
इसलिए हमें कर्मों को करते ही करते अधिक से अधिक आयु की इच्छा करनी चाहिए और अपने पुण्यों को प्रभु अर्पण करते रहना चाहिए।
वैसे तो कर्म विहीन कोई प्राणी निद्रावस्था के सिवाय रह ही नहीं सकता लेकिन कर्मेन्द्रियों के द्वारा सृजनात्मक, क्रियात्मक व धार्मिक कर्म करने अनिवार्य हैं जो कि हमारे भाग्य के निर्माता हैं।  और भविष्य में हमें सुख प्रदान करते हैं।

आपका
भवानंद आर्य (अनुभव )

जीवन निरर्थक जाने न पाये

हे नाथ अब तो ऐसी कृपा हो जीवन निरर्थक जाने न पाये।
यह मन न जाने क्या क्या दिखाए कुछ बन न पाया मेरे बनाये।

संसार में ही आसक्त रहकर दिन रात अपने मतलब की कह कर।
सुख के लिए लाखों दुःख सहकर ये दिन अभी तक यूँ ही बिताये।

ऐसा जगा दो फिर सो न जाऊं अपने को निष्काम प्रेमी बनाऊं।
मैं आप को चाहूँ और पाऊँ संसार का कुछ भय रह न जाये।

वह योग्यता दो सत्कर्म कर लूं अपने हृदय मैं सदभाव भर लूँ ।
नरतन है साधन भव सिन्धु तर लूँ ऐसा समय फिर आये न आये।

हे दाता हमें निरभिमानी बना दो दारिद्र हर लो दानी बना दो। 
आनंद मय विज्ञानी बना दो मैं हूँ पथिक यह आशा लगाये।




(पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के गाये भजनों से साभार )

आपका
भवानंद आर्य

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

फिर मत कहना कुछ कर न सके

फिर मत कहना कुछ कर न सके।
नहीं जीवन अब तक संवर सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

जब नर तन तुम्हें निरोग मिला।
सत्संगत का भी योग मिला।
फिर भी प्रभु कृपा अनुभव करके।
यदि भव सागर तुम तर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

तुम सत्य तत्व ज्ञानी होकर।
तुम सत्धर्मी मानी होकर।
यदि सरल निरभिमानी होकर।
कामना विमुक्त विचर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

जग में जो कुछ भी पाओगे।
सब यहीं छोड़ कर जाओगे।
पछताओगे यदि तुम अपना।
पुण्यों से जीवन भर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।


जब अंत समय आ जायेगा।
तब क्या तुम से बन पायेगा।
यदि शक्ति समय के रहते ही।
आचार विचार सुधर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।   

होता तब तक न सफल जीवन।
है भार ऱुप सब तन मन धन।
यदि पथिक प्रेम पथ पर चलकर।
अपना या पर दुःख हर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।

फिर मत कहना कुछ कर न सके।
यदि भव सागर तुम तर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके। 
कामना विमुक्त विचर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।  
पुण्यों से जीवन भर न सके।
फिर मत कहना कुछ कर न सके।
आचार विचार सुधर न सके। 
फिर मत कहना कुछ कर न सके।
अपना या पर दुःख हर न सके। 
फिर मत कहना कुछ कर न सके।   

(बाबा रामदेव जी द्वारा गए भजनों से साभार )
आपका
भवानंद आर्य

सत्य

परमात्मा कहते हैं कि "मैं सत्यवादी को सत्य सनातन ज्ञानादि धन देता हूँ।  मैं यज्ञ करने वाले को फल प्रदाता और इस संसार में जो कुछ भी है उसका बनाने व धारण करने वाला हूँ अतः मेरे सिवाय मेरे स्थान पर और किसी को मत पूजो, मत मानो, मत जानो।"


आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव '

बुधवार, 12 मार्च 2014

प्रभु तन में रमा करना

प्रभु तन में रमा करना  प्रभु मन में रमा करना।
वैकुण्ठ यहीं तो है इस में ही बसा करना।

हम मोर बनके प्रभु जी नाचा  करेंगे वन में। 
तुम श्याम घटा बन के उस वन में उठा करना।

होकर के हम पपीहा पी पी रटा करेंगे।
तुम स्वाति बूंद बनके प्यासे पे दया करना।

हम दीन दुखी जग में तुम को ही निहारेंगे।
तुम दिव्य ज्योति बन कर नयनों में रहा करना।


(पूज्यपाद स्वामी रामदेव जी के गाये भजनों से साभार  )


 आपका
भवानंद आर्य

हृदयों से दूर क्यों..

हमारे दैनिक जीवन में हम अपने भाई, बहन, माता, पिता, चाचा, मामा, चाची, मामी , पुत्रियों, पुत्रों, पत्नी आदि को प्रेम करते हैं।  मैं आपको इस बात से अवगत कराना चाहता हूँ कि हम किस प्रकार अपना प्रेम खो देते हैं और अपने को दूसरों के हृदयों से दूर कर बैठते हैं।  आजकल के भौतिक वादी युग में  यंत्रों की उन्नति हो चुकी है।  बहुत से वैज्ञानिकों ने वाहनों, मोबाइल , इंटरनेट , पेजर , टेलीफोन आदि की खोज की है।  ये साधन कई प्रकार से हमारे सहायक हैं लेकिन यह मेरा विषय नहीं चल रहा कि ये माध्यम किस प्रकार से हमारे लिए सहायक हैं या किस किस ने क्या क्या खोजा। 
यदि हम प्राचीन काल को विचारें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि किस प्रकार हृदयों से एक दूसरे के निकट थे जब भौतिक प्रगति इतनी अधिक नहीं थी।  परन्तु इन युक्तियों ने हमें हृदयों से दूर कर दिया है, यह सत्य तथ्य है।  हालांकि भौतिक प्रगति नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती लेकिन हमें भौतिक साधनों का प्रयोग अध्यात्मिक उन्नति के लिए करना चाहिए।  यह राय मानव को हमारे ऋषि मुनियों की ओर से है।  ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी अपनी समाधिस्थ अवस्था में कहते हैं कि "हमें अध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के विज्ञानों में विकास करना चाहिए। तब हमारी शीघ्र उन्नति होती है । अध्यात्मिक विज्ञान का पथ भौतिक विज्ञान से ही होकर गुज़रता है।  हमें भौतिक विज्ञानं का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। "
अब मैं इस के बारे में एक तथ्य का उदघाटन कर रहा हूँ-
"जब हम भौतिक साधनों के द्वारा निकट आते हैं तो हम हृदयों से दूर हो जाते हैं। ."
"जब भौतिक साधनों के अभाव में हम दूर होते हैं तब हम हृदयों से पास रहा करते हैं। "
यह ऋषि मुनियों की खोज है अतः बिलकुल उपयुक्त तथ्य है। 
इसलिए इन शब्दों के बारे में विचारो जो कि गूढ़ रहस्य मय तथ्य से युक्त हैं। और इस पोस्ट पर टिपण्णी करना मत भूल जाना कि तुम इस बारे में क्या विचारते हो?
अपने विचार न प्रस्तुत करते हुए मैं ये आप पर छोड़ता हूँ कि आप सोचो और आप अपने विचार बताओ जो आपने इससे सम्बंधित अपने जीवन में अनुभव किये हैं । 
आप लोग टिपण्णी करने के लिए आमंत्रित हो। 
आपका 
भवानंद आर्य 'अनुभव'

मन में ॐ बसा ले

बोलो ॐ जय जय ॐ जय जय ॐ।

जनम सफल होगा रे बन्दे।
मन में ॐ बसा ले मन में ॐ बसा ले।

बोलो ॐ आजा ॐ आजा ॐ।

ॐ नाम के मोती को सांसों की माला बना ले।
मन में ॐ बसा ले।

ॐ पतित पावन करुणाकर और सदा सुख दाता।
सरस सुभावन अति मन भावन  ॐ  से प्रीत लगा ले।
मन में ॐ बसा ले। 

भोले ॐ आजा ॐ  आजा ॐ ।

मोह माया है झूंठा बंधन त्याग उसे ए प्राणी।
ॐ  नाम की ज्योत जलाकर अपना भाग्य जगा ले।
मन में ॐ बसा ले। 

ॐ  भजन में डूब के अपनी निर्मल कर ले काया।
ॐ  नाम से प्रीत लगा के जीवन पार  लगा ले ।
मन में ॐ बसा ले। 


आपका
भवानंद आर्य


मंगलवार, 11 मार्च 2014

उन्नत जीवन जो करना है

उन्नत जीवन जो करना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो
भव सागर पार उतरना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो

संकट के बादल घिर आयें छा जाये निराशा जो मन में
भयभीत हृदय जब हो जाये मन ॐ जपो मन ॐ जपो

विषयों के जब तूफ़ान उठे मन में चंचलता आ जाये
जब बुद्धि नैय्या  डोल उठे मन ॐ जपो मन ॐ जपो

चिंता की अग्नि धधक उठे मन में व्याकुलता छा जाये
सच्ची निष्ठां आधार बना मन ॐ जपो मन ॐ जपो

पथ दुर्गम हो कितना चाहे और जाना भी हो दूर हमें
अपार हृदय विश्वास लिए मन ॐ जपो मन ॐ जपो

 उन्नत जीवन जो करना है मन ॐ जपो मन ॐ जपो


(पूज्य स्वामी रामदेव जी द्वारा गाये भजन से)

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आपका अपना
भवानंद आर्य

जब मौत की शहज़ादी आएगी : भजन

साँस एक रोज़ हवाओं में बिखर जाएगी।
तेरी मिट्टी कभी मिट्टी में उतर जायेगी।
किसको मालूम सफ़र ख़त्म कहाँ होता है?
जाने किस मोड़ पे ये रेल ठहर जाएगी।


सज धज कर जब मौत की शहज़ादी आएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

छोटा सा है तू बड़े अरमान हैं तेरे।
मिट्टी का तू सोने के सामान हैं तेरे।
मिट्टी काया मिट्टी में जिस दिन समाएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

धन दौलत से ख़ाली होंगे इक दिन तेरे हाथ.
अंत समय भगवान भजन जायेगा तेरे साथ।
उस दिन तुझको वेद की वाणी याद आयेगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

अच्छे किये हैं कर्म तूने पाया मानव तन।
पाप में क्यूँ डूबा है ये पापी चञ्चल मन।
पाप की नैय्या जिस दिन तुझको रुलाएगी जिस दिन डुबाएगी।
ना सोना काम आएगा ना चांदी आएगी।

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आपका
भवानंद आर्य

सोमवार, 10 मार्च 2014

ॐ नाम का दीप जला लेना

जब चारों ओर अँधेरा हो।
ॐ नाम का दीप जला लेना।
चाहे साँझ हो चाहे सवेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

छोड़ दे भी ज़माना तो परवा ना कर।
वो तेरे साथ है तो जहाँ साथ है।
बस ग़ुज़र जाएगा तेरा हर मरहला।
तेरी हर दौड़ में प्रभु का हाथ है।
जितना भी ग़मों ने घेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

तुझको जीना है ये सब्र के घूँट पे।
शुक्र कर तू कि ये ज़िन्दगी मिल गयी।
शुक्र कर तू कि तुझको हज़ारों मिले।
चाहे जीवन में कितनी भी शोहरत मिले।
जिस हाल में तेरा बसेरा हो।
प्रभु नाम का दीप जला लेना।

इस पोस्ट को उर्दू  में पढ़ें

(पूज्य स्वामी रामदेव जी के द्वारा गाया गया एक भजन )

आपका अपना
भवानंद आर्य

ओ दाता हम पे दया रखना

ओ दाता हम पे दया रखना।
ओ दाता हम पे दया रखना।

तुम ना  होते जग ना होता।
बिखरे मोती कौन पिरोता?
जीव बेचारा तुम बिन ऐसे।
बालक बिन माता।
ओ दाता हम पे दया रखना।

सूरज में ये चमक ना होती।
चाँद में शीतल दमक ना होती।
मेघ ना गिरता जल ना बरसता।
बीज ना उग पाता।
ओ दाता हम पे दया रखना।

तुम हो एक खुदा करें हम विनती।
सुन लो छोटी सी एक विनती।
बिना तुम्हारे किसीके आगे.
झुके नहीं माथा।
ओ दाता हम पे दया रखना।

(स्वामी रामदेव जी द्वारा गाया गया एक भजन )

आपका अपना 
भवानंद आर्य

उसके लिए कोई भक्त अदृश्य नहीं है

परमपिता परमात्मा कहते हैं कि "मेरे लिए कोई भक्त अदृश्य या दूर नहीं है और मैं भी उसके लिए अदृश्य या दूर नहीं हूँ। "
'न मे भक्तः प्रणश्यति'  भगवत गीता में भगवान कृष्ण जी ने परम पिता के दूत के रूप में कहा है। इसलिए यदि हम  परमात्मा के भक्त हो जाते हैं तो वे हमारे लिए उपलब्ध भी हो जाते हैं। परमात्मा के भक्त होने का सुख कहा नहीं जा सकता। जब हम इस संसार के बंधक होते हैं केवल एक ही रास्ता - भक्ति ऐसा है जिससे हमें अतीव आनंद प्राप्त होता है।  यह अति आनंद हम मुक्ति में भी प्राप्त किया करते हैं। 
यदि हम किसी में श्रद्धा या विश्वास रखते हैं तो हमें संदेह कभी नहीं रखना चाहिए जैसा कि कहा भी है-
संदेहात्मा विनश्यति - एक व्यक्ति जो संदेह किया करता है वह नष्ट हो जाता है। 
हमें संदेह नहीं करना चाहिए क्योंकि इस विचारधारा का प्रभाव जब दूसरे पर पड़ता है तो बदले में हमे नकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है।  इसलिए हमें अगर अपने को उन्नत बनाना है तो पहले ही खोज लेने के बाद हमें श्रद्धा बनाये रखनी चाहिए और संदेह को कोई स्थान नहीं देना चाहिए। 
परमात्मा, व्यक्तियों व वस्तुओं के बारे में हमें पहले ही खोज करलेनी चाहिए और उसके बाद किसी प्रकार का संदेह मन में नहीं आने देना चाहिए।  केवल तभी हम अपनी श्रद्धा व आवश्यकताओं में सफल हो पाएंगे। 
अब मैं  परमात्मा से वार्तालाप का एक उदाहरण पोस्ट "Kalp Vriksha " से ले रहा हूँ -

जब परमात्मा ने यह ब्रह्माण्ड बनाया सभी आत्माओं और देवताओं ने कहा , "हे प्रभु! आपने ये जगत किस प्रकार का बनाया है?" तो परमात्मा ने उत्तर दिया , "ये संसार मैंने कल्पवृक्ष की भांति बनाया है। जो भी कल्पना तुम आज  करोगे वह ही भविष्य में  होगा और वहीं वस्तु तुम्हें प्राप्त हो जायेगी।  लेकिन कल्पना यथार्थ होनी चाहिए तथा संकल्प महान, सदबुद्धि से पूर्ण होना चाहिए। ताकि जिससे मानव जीवन पवित्र बन जाए। "

सम्बंधित पोस्ट : कल्प वृक्ष (अंग्रेजी में )


आपका अपना 
भवानंद आर्य

शनिवार, 8 मार्च 2014

मेरे भीतर बहुत क्रोध है

मेरे भीतर बहुत क्रोध है।
करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

प्रिय की ये मीठी मुस्कान।
भरती क्यूँ जीवन में प्रान।
फिर क्यों बिछड़ गए हैं मीत।
कैसा ये रौरव संगीत।
गति का कैसा गतिरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

मदमस्त और मधुमस्त बसंत।
लेकर आता क्यूँ है अंत।
तपती सूरज की ये किरनें।
फिर है ग्रीष्म ऋतु क्यों लाती।
इसका मुझको नहीं बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

उलटे सीधे चक्र चलाकर।
किया इकट्ठा धन ये लाकर।
घर भर डाले तुमने अपने।
मिटे ग़रीबों के सब सपने।
होना इस का भी विरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

प्रभु से प्रीत लगा कर देखी।
यहीं पे जन्नत पा कर देखी।
अब क्यूँ दूर हुए हो आप।
मैंने कैसा किया था पाप।
प्रभु का ही ये सृष्टि बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

(पूज्य पिताजी की क़लम से )

इस कविता को उर्दू में पढ़ें
आपका अपना
भवानंद आर्य 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

प्रभु तेरी शरण में

कोशिश की पाने की बहुत इस दुनिया को।
कुछ ना मिला पर कुछ ना मिला।
चाहा बहुत इस दुनिया को इस दुनिया को।
प्यार किया जिनसे और माना अपना।
वे हो गए बेगाने से बेगाने से।

बसाया जिनको दिल में।
तोड़ दिया उन्होंने दिल तोड़ दिया।
छोड़ दिया बीच भंवर में छोड़ दिया।
सबका तो नहीं पर बहुतों का है दर्द यहीं।

लेकिन प्रभु तू ही मेरा ऐसा है।
 जो कभी दुःख में भी साथ नहीं छोड़े।
जब जग में क़दम डोलें मेरे।
है तू ही प्रभो बचाता।

विकट संकट में भी तू ही है पार लगाता।

जब कभी राह नज़र न आये।
चारों ओर अँधेरा छा जाये।
तू ही है आसरा प्रभु उस समय तू ही है।
प्रभु तेरी शरण में हूँ।

प्रेरणा : स्वामी रामदेव जी के भजन से

आपका
भवानंद आर्य

बुधवार, 5 मार्च 2014

एक तेरी दया का दान मिले: भजन

 ॐ 
एक तेरी दया का दान मिले,
एक तेरा सहारा मिल जाये ।
भव सागर में बहती मेरी,
नैय्या को किनारा मिल जाये ।

जीवन  की टेढ़ी राहों पर,
चलकर न तुझको जान सका ।
आशाओं की झोली भर जाये,
एक तेरा द्वारा मिल जाये ।
एक तेरी दया का दान मिले।

मैं नर हूँ तुम नारायण हो,
इतना तो भेद ज़रूरी है ।
यदि शरण तेरी मैं पा ना सका,
नर तन तो दुबारा मिल जाये ।
एक तेरी दया का दान मिले।
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