सोमवार, 21 अप्रैल 2014

सिद्धियां

वेद में परम पिता परमात्मा स्वतः उपदेश करते हैं कि जिन विधियों से परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है उन विधियों के द्वारा परमात्मा का साक्षात कर लेना ही चाहिए और अपने जीवन में सुख और परमात्मा का सहाय प्राप्त करना चाहिए।  

संध्या जो कि आदि ब्रह्मा जी द्वारा उपदेश की गयी थी और वे संध्या मन्त्र हमें स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित संस्कार विधि में भी मिलते हैं, में एक मन्त्र में कहा गया है कि "जपोपासनादि कर्मणाम् धर्म अर्थ काम मोक्षाणाम् सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः" अर्थात हे परमात्मा हम जप, उपासना आदि कर्मों को करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धियों को शीघ्र ही प्राप्त कर लेवें। बिना परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के हम अल्पबुद्धि जीव, ये चार प्राप्त करने को समर्थ नहीं हैं। बिना उसकी कृपा के यह असंभव है। 

अब विचार आता है कि ये चार सिद्धियां क्या हैं? सिद्धि उसे कहते हैं जिन्हें सिद्ध किया जाए अर्थात किसी चीज़ को भी सिद्ध करने में ज्ञान, समय, साधन व बुद्धि आदि की आवश्यकता होती है  सिद्धि का अर्थ ये नहीं समझ लेना चाहिए कि बस इच्छा की और धार्मिक कार्य संपन्न हो गए, मन्त्र मारा और पैसों की ढेरी बन गयी, कामना की और कामना तुरंत पूरी हो गयी या पल में मोक्ष में पहुँच गए। इसमें तो विधि पूर्वक कर्म करना पड़ता है तभी ये चार पूरे होते हैं। इसमें समय भी लगता है और वो बुद्धि और क्षमता की भी ज़रूरत होती है जिससे कार्य पूर्ण हो जाये।  इतना सब कुछ परम पिता परमात्मा की कृपा और उसको खुश किए बिना संभव नहीं है।  और ऐसा माना जाता है बल्कि ये सत्य है के योगी को सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं परन्तु यदि योगी सिद्धियों में फँस जाता है तो वह परम धाम मोक्ष से वंचित हो जाता है अतः योगी को निर्लेप होना आवश्यक है। आजकल बाबा रामदेव जी ने लगभग सभी को योग का सबक सीखा -सिखा  कर योगी बना डाला है वह दिन दूर नहीं जब उत्तम योगी ही राष्ट्र की बागडोर सम्हालेंगे और राष्ट्र की प्रजा भी योगी ही होगी और उत्तम चरित्र होने के कारण अधिकतम प्रजा स्वाधीन भी होगी। उनकी शुभेच्छाएँ भी पूर्ण हुआ करेंगी जिससे भारत फिर से दुनियां के राष्ट्रों में सिरमौर होगा। 

व्यक्ति को गायत्री जप, ॐ के जप व अन्य जप करने चाहिए।  उपासना में हमें गायन, वादन, व मंत्रोच्चार के द्वारा प्रभु के निकट जाने का प्रयास करना चाहिए।  स्तुति में हमें अपने मुख से परम पिता परमात्मा के गुणों का बखान करना चाहिए जो के धार्मिक गुरु भी करते हैं लेकिन होना सब वेदानुकूल चाहिए हालांकि परमपिता परमात्मा तो अन्तर्निहित भावनाओं का भोजन करते हैं तो यदि कोई भूलवश सही विधि भी नहीं करपाता तो भी अधिक हानि नहीं है और  कलयुग में तो किसी भी उत्तम प्रकार से कोई भक्ति करता है तो उसके फल स्वरुप भी उसे परमात्मा के सही रूप को पहचानने में सहायता मिल ही जाती है क्योंकि इस युग में अज्ञान अधिक है और परम प्रभु तो ये सब जानते है लेकिन फिर भी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सही विधि का ज्ञान होने तक हम उन चार से वंचित न रह जाएँ इसलिए सही विधि का पता कर लेना चाहिए।  

यज्ञ, जिसको राम जी, कृष्ण जी और समस्त ऋषि मुनिओं ने पूजा है उस यज्ञ में सारी  विधियां आ जाती हैं अतः हमें यज्ञ को बढ़ावा देना चाहिए।  यह यज्ञ संसार का श्रेष्ठतम कर्म है और इसको ऋषिओं ने ब्रह्माण्ड की नाभि भी बताया है। 



आपका 
भवानन्द आर्य 'अनुभव शर्मा'

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

जड़ भरत

एक बार की बात है एक ऋषि जिनका नाम साकल्य मुनि था तपस्या करते करते जब अपने तीनों शरीरों - स्थूल, सूक्ष्म व कारण को भी जान गए तो वे अपने तप में पूर्ण हो गए थे।  वह मुक्ति के जिज्ञासु थे और मुक्ति के निकट पहुँच गए थे। 

एक बार ऐसा हुआ कि वे अपने आश्रम में विराजमान थे जब एक हिरणी जो कि गर्भवती थी और उसका पीछा एक व्याघ्र कर रहा था उस आश्रम की और आई।  आश्रम में ही उसका गर्भपात हो गया।  नवजात बच्चे को छोड़ कर ही वो व्याघ्र से बचने के लिए भाग गयी।  जब मुनि ने देखा कि वह हिरणी का बच्चा तड़प रहा है तो उन्होंने विचारा कि इसकी मदद की जाये।  लेकिन उन्होंने फिर विचारा कि प्रभु तो है ही वह स्वतः इसकी सहायता करेंगे और मैं तो मुक्ति में जा रहा हूँ , मैं क्यों इस मोह माया के बंधन में फँसूँ।  लेकिन जब पुनः विचारा तो ये निष्कर्ष निकाला की इस बच्चे की मदद की जाए और वे उठे और मन्त्र पढ़ कर उसपर जल छिड़का।  तुरंत उस बच्चे को चेतना आ गयी और वो खेलने कूदने लगा। वह उसको पुत्रवत पालने लगे।   धीरे-धीरे ऋषि को उस हिरणी के बच्चे से मोह हो गया। एक बार साकल्य मुनि के पिता उस के पास आये और बोले कि तुम्हें अपने माता-पिता आदि किसी से मोह नहीं फिर तुमने इस हिरन से मोह किया है यह तो ठीक नहीं है।  इस पर साकल्य मुनि बोले कि हे पितर मुझे किसी से मोह नहीं परन्तु अब क्या करूँ मुझे तो मोह हो गया है।  हिरन की आयु कम होती है तो एक दिन तो उसको मरना ही था हिरणी के बच्चे की मृत्यु हो गयी और साकल्य मुनि ने भी उसके वियोग में प्राण त्याग दिए कि  मेरा पुत्र कहाँ चला गया? इस प्रकार वे आवागमन के चक्र में पुनः फँस गए।

साकल्य मुनि की महान आत्मा ने एक रानी के गर्भ में प्रवेश किया और गर्भ में ही परम पिता से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु मैंने पिछले जन्म में हिरणी के बच्चे से मोह किया था अब मैं कभी मोह नहीं करूँगा। ऋषि का संकल्प था पूरा तो होना ही था।  जब उन्होंने जन्म लिया तो वह पूरी तरह मोह रहित थे।  जब वह बालक पैदा हुआ तो राजा का पुत्र था बड़ी धूमधाम से उसका जन्म संस्कार हुआ।  मोह तो उन्हें था नहीं अतः जहाँ भी उन्हें नियुक्त किया जाता वहां ही तोड़ फोड़ मचा दिया करते। जब वह थोड़े बड़े हुए तो नाना वैद्यराजो को उस बाल्य को दिखाया गया लेकिन वे कहते कि  इसके मस्तिष्क में कोई कमी नहीं है।  यह बालक बहुत ही ऊँचा बनेगा।  अप्रसिद्धि के भय से राजा ने उस को एक वाटिका में नियुक्त कर दिया। लेकिन उस ने वह वाटिका तोड़ डाली तब राजा ने उसे अपने पहरेदारों के द्वारा राज्य की सीमा से बाहर निकलवा दिया।  अब वे वनों में पहुंचे और उनके पूर्व जन्मों के संस्कार जागृत होने शुरू हो गए कि मेरे पिता ने किस दंड स्वरूप मुझे अपने राज्य से बाह्य कर दिया।  वह फल और पत्र लेकर तपस्या करने लगे।  धीरे धीरे वे जड़ भरत के नाम से प्रसिद्द हो गए। 

एक राजा थे राजा नहुष।  उन्होंने विचारा की चलो अब राज्य त्याग किया जाये और मुक्ति के लिए कुछ उपाय किया जाए।  उन्होंने जड़ भरत का नाम सुना था अतः वह पालकी पर बैठ कर वनों की और चल दिए।  रास्ते में उनके चार पालकीवानों में से एक की तबियत ख़राब हो गयी।  राजा ने एक पेड़ के नीचे एक नवयुवक को बैठे देखा उन्होंने उसको चौथा पालकीवान बना दिया।  वह नवयुवक जड़भरत था।  जड़भरत से पालकी ले जानी तो आती ही न थी अतः वह चलते-चलते कभी ऊपर और कभी नीचे हो रहा था जिससे की विघ्न होने पर राजा को क्रोध आ गया।  राजा उतर कर जड़ भरत पर छड़ी से प्रहार करने लगा।  उनके शरीर से खून बहने लगा खून को देख कर जड़ भरत मग्न होने लगे और कहने लगे "प्रभु आपने मुझे मोह का ये दंड दिया है इन लोगों का क्या होगा जब ये आप के द्वार आएंगे जिनमे काम भी है और क्रोध भी विशेष है प्रभु आप इन लोगों का क्या हाल करोगे?" जड़ भरत को इस प्रकार मग्न देखकर राजा विचार में पड़ गया और उसने पूछा कि हे महापुरुष आप कौन हो तो ऋषि बोले , "मुझे जड़भरत कहते हैं। " यह सुनते ही नहुष बहुत प्रायश्चित्त करने लगा और बोला, "प्रभु! मैं तो आप के ही द्वार आ रहा था मुझे पता न था कि आप जड़भरत हो। " और उनसे क्षमा याचना करने लगा और चरणों को स्पर्श करने लगा।  बाद में नहुष ने जड़भरत से कहा कि  प्रभु! मुझे भी कुछ मुक्ति के लिए शिक्षा दो।  जड़भरत बोले कि अगर मुक्ति की कामना करते हैं तो इस शरीर का मोह भी त्यागना पड़ता है।  और वे उसे शिष्य बना कर शिक्षा देने लगे।

आपका
भवानन्द आर्य

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

रावण का विवाह संस्कार

राजा महिदन्त चक्रवर्ती राजा थे।  पातालपुरी, रोहिणी, गांधार इत्यादि राज्य राजा महिदन्त के अधीन थे।  इनका जो राजकोष था वह लंका में था और महाराजा शिव उनके सहायक रहते थे।  एक समय पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से निवेदन करके लंका में एक स्थान नियुक्त किया, वह स्वर्ण का गृह था जिसमें पुलस्त्य ऋषि विश्राम किया करते थे।  कुछ समय के पश्चात ऐसा हुआ की लंका का स्वामी कुबेर बन गया और भी सब राजाओं ने अपने - अपने राष्ट्र को अपना लिया।  पातालपुरी को कुधित रूष्ठित नाम के राजा ने अपना लिया और भार्तिक नाम के राजा ने सौमधित राज्य को अपना लिया।  राजा महिदन्त का सूक्ष्म सा राष्ट्र रह गया।  
राजा महिदन्त के न कोई पुत्र था, न कन्या थी।  कुछ समय के पश्चात ऐसा सुना गया कि राजा

महिदन्त के एक कन्या उत्पन्न हुई तो राजा ने बड़ा ही आनंद मनाया, नाना वेदों के पाठ कराये, जन्म संस्कार बड़े उत्सव से कराया।  उसके पश्चात कन्या जब कुछ प्रबल हुई तो महाराजा की धर्मपत्नी सुरेखा ने कहा कि हे भगवन! इस कन्या को तो गुरुकुल में जाना चाहिए, जिससे यह विद्या पाकर परिपक्व हो जाये।  उस समय महाराजा महिदन्त अपनी धर्मपत्नी  की याचना को पाकर, उस कन्या को लेकर कुल-पुरोहित महर्षि तत्व मुनि महाराज के समक्ष पहुंचे।  वहां पहुंचकर राजा और कन्या ने महर्षि के चरणों को स्पर्श किया और राजा ने कहा कि भगवन! मेरी कन्या को यथार्थ विद्या दीजिए जिससे यह हर प्रकार की विद्या में सफल होवे। 

महर्षि बाल्मीकि ने इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन किया है कि राजा महिदन्त तो अपने स्थान पर चले गए और ऋषि ने उस कन्या को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी।  शिक्षा पाते - पाते वह कन्या बड़ी महान बनी और विद्या में बहुत ऊँची सफलता प्राप्त की।  वह भौतिक यज्ञ और कर्मकाण्ड में प्रकाण्ड हो गयीं।  वह वेदों का हर समय स्वाध्याय करती थीं।  उस समय ऋषि ने अपने मन में सोचा कि यह कन्या तो क्षत्रिय की है परन्तु इसके गुणों को देखते हैं तो ब्राह्मण कुल में जाने योग्य है।  अब क्या करना चाहिए? ऋषिवर यहीं नित्य प्रति विचारा करते थे।  कुछ काल के पश्चात वह कन्या युवा हो गयी।  जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व होता है, वह कन्या अपने ब्रह्मचर्य से परिपक्व थी।  राजा ने अपनी धर्मपत्नी के कथनानुसार ऋषि से जाकर प्रार्थना की, कि भगवन! अब कन्या को गृह में ले जाना चाहते हैं।  अब इसका संस्कार भी करना चाहिए।  मुझे नियुक्त कीजिए कि मेरी कन्या कौन से गुण वाली है , किस वर्ण में इसका संस्कार होना चाहिए? उस समय ऋषि ने कहा कि भाई! तुम्हारी कन्या तो ऋषिकुल में जाने योग्य है, आगे तुम किसी के द्वारा इसका संस्कार करो, हमें कोई आपत्ति नहीं।  राजा वहां से उस ब्रह्मचारिणी को लेकर राज गृह आ पहुंचे। 

हमारे यहाँ यह परिपाटी है कि जब ब्रह्मचारिणी या ब्रह्मचारी गुरुकुल से आये तो माता-पिता यजन और ब्रह्मभोज कर उनका स्वागत करें।  उसी प्रकार माता-पिता ने उस कन्या का यथाशक्ति स्वागत किया।  स्वागत करने के पश्चात पत्नी ने अपने पति से कहा कि महाराज! अब तो हमारी कन्या युवा हो गयी है, इसके संस्कार का कोई कार्य करो।  महाराज नित्यप्रति भ्रमण करने लगे।  भ्रमण करते-करते पुलस्त्य ऋषि के पुत्र मनीचन्द के द्वार जा पहुंचे।  मनीचन्द के एक पुत्र था जो ४८ वर्ष का आदित्य ब्रह्मचारी था।  वह वेदों का महान प्रकांड विद्वान था।  महाराज ने मनीचन्द से निवेदन किया कि महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार कीजिए, मैं तुम्हारे पुत्र से अपनी कन्या का संस्कार करना चाहता हूँ।  उस समय मनीचन्द ने कहा कि महाराज! हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ हैं जो इतनी तेजस्वी कन्या हमारे कुल में आये।  बालक वरुण ने और माता-पिता ने उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया।  राजा मग्न होते हुए अपने घर आ पहुंचे।

नक्षत्रों के अनुकूल समय नियुक्त किया गया।  कुछ समय के पश्चात वह दिवस आ गया।  मनीचन्द अपने पुत्र से बोले कि हे पुत्र! आदि ब्राह्मण जनों का समाज होना चाहिए।  जिस कन्या का, जिस पुत्री का, जिस पुत्र का, वेद के विद्वानों में, विद्वत मण्डल में संस्कार होता है, उसका कार्य हमेशा पूर्ण हुआ है।  उस समय नाना ऋषिओं को निमंत्रण दिया गया।  निमंत्रण के पश्चात विद्वत् समाज वहाँ से नियुक्त हो राजा महिदन्त के समक्ष आ पहुंचा।  राजा महिदन्त ने देखा कि बड़ा विद्वत् मण्डल है।  राजा ने यथाशक्ति स्वागत किया।  ऋषिओं की परिपाटी के अनुकूल ब्रह्मचारिणी अपने पति का स्वयं सत्कार करने जा पहुंची।  नाना मणियों से गुंथी हुई पुष्प मालाएं तथा नाना प्रकार की मेवाएं, उस कन्या ने उनके समक्ष नियुक्त  कीं, न उन्होंने वह स्वीकार कर लीं।  इस प्रकार राजा ने अपने सम्बन्धिओं का यथा शक्ति स्वागत किया, स्वागत के पश्चात यथा स्थान पर विराजमान किया गया।  सायं काल कन्या के संस्कार का समय हो गया।  बड़े आनंद के साथ वहां संस्कार होने लगा, बुद्धिमानों के वेदमंत्र होने लगे।  ब्रह्मचारी अपने वेदमंत्रों का गान गा रहा था ब्रह्मचारिणी अपने वेदमंत्र गा रही थी, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेदों के गान गाए जा रहे थे . बड़ी आशानंदी से वह संस्कार समाप्त हो गया।

अगला दिवस आ गया।  उस समय शरद वायु चल रही थी।  उसके कारण बालक के सम्बन्धी  स्नान नहीं कर रहे थे।  उस बालक ने कहा अरे! तुम स्नान क्यों नहीं कर रहे हो? उन्होंने कहा स्नान क्या करें, शरद वायु चल रही है।  उस समय उस बाल ब्रह्मचारी ने, जो वेदों का ज्ञाता था, जो विज्ञान की मर्यादा को जानता था, उसने प्रणाम किया और कहा के हे वायुदेव! तुम हमारे कार्य में विघ्न डाल रहे हो, कुछ समय के लिये शांत हो जाओ।  उस समय उस ब्रह्मचारी के संकल्पों द्वारा वायु कुछ धीमी हो गयी।  सभी सम्बन्धिओं ने स्नान किया।  नाना सम्बन्धी स्नान कर अपने-अपने स्थानों पर नियुक्त हो गए।

इसके पश्चात द्वितीय समय आया और वहां से सब अपने-अपने गृह को जाने लगे तो उस समय \राजा महिदन्त ने यथाशक्ति सभी का स्वागत किया।  जब कन्या जाने लगी तो एक ने कहा के अरे भाई! यह पुत्र  इतना योग्य था परन्तु राजा महिदन्त ने अच्छी प्रकार स्वागत नहीं किया।  उस समय राजा महिदन्त व्याकुल होने लगे।  उन्होंने व्याकुल  होकर कहा कि हे सम्बन्धियों! मैं क्या करूँ? मेरा तो यह काल ही ऐसा है।  कोई समय था जब चक्रवर्ती राज्य था।  अब तो जितना द्रव्य था, सब लंका चला गया, महाराजा कुबेर उसका स्वामी बन गया है।  उस समय इन वार्ताओं को स्वीकार कर सबने अपने-अपने स्थान की और प्रस्थान किया।

उस बालक ने अपने गृह पहुँच कर सोचा कि मेरे सम्बन्धी ने जो यह कहा है कि मेरी लंका को कुबेर ने विजय कर लिया है तो मुझे कुबेर से लंका को विजय करना है।  बुद्धिमान सर्वत्र पूज्य होता है।  पुलस्त्य ऋषि महाराज का पौत्र था, इसलिए वह जिस राष्ट्र में जाता था उसका स्वागत होता था।  जो स्वागत में कुछ देता तो ब्रह्मचारी उससे मांगते १० हज़ार सेना मुझे दो जिससे कि मेरा काम बने।  इस प्रकार प्रत्येक राज्य से दस-दस हज़ार सेना एकत्र करके उसने लंका पर हमला किया और राजा कुबेर को जीत लिया।  उस समय राजा कुबेर ने कहा था कि अरे भाई! तुम मुझे क्यों विजय कर रहे हो? उस समय उस महान ब्रह्मचारी ने कहा था कि कुबेर! मैं तेरे राष्ट्र में शांति नहीं देख रहा हूँ।  जिस काल में जिस राजा की प्रजा शान्त न हो, उस समय उस राजा को पद से गिरा देना धर्म है और उसके स्थान पर शांतिदायक, आत्मज्ञानी को, जो प्रजा को यथार्थ सुख-शान्ति  देने वाला हो, राजा बनाना चाहिए।

राजा कुबेर को लंका से पृथक कर वह बालक वरुण राजा महिदन्त के सम्मुख आ पहुंचा और उनसे बोला कि महाराज! मैंने लंका को विजय कर लिया है, आप अपनी लंका को स्वीकार कीजिए।  उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि हे ब्रह्मचारी लंका को तुमने विजय किया है, मुझे स्वीकार है परन्तु स्वीकार करके मैंने यह लंका अपनी कन्या के दहेज में तुम्हें अर्पण कर दी।

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आपका
भवानन्द आर्य 'अनुभव'

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

राजा रावण

लंका की राज्य प्रणाली 
राजा रावण से पूर्व लंका के महाराजा कुबेर थे, महाराजा कुबेर से पूर्व महाराजा महिदन्त  थे, महिदन्त से पूर्व महाराजा शिव थे।  लंका की प्रणाली बहुत पूर्व से चली आ रही थी।  जब रावण राजा बने तब महाराजा रघु का जितना राज्य था,  उस पर रावण ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, राजा दशरथ के पास सूक्ष्म सा अयोध्या का राष्ट्र रह गया था। 


वरुण से रावण

महाराजा महिदन्त की कन्या मन्दोदरी का संस्कार महाराजा रावण के साथ सम्पन्न हुआ।  रावण का बाल्यकाल का नाम ब्रह्मचारी वरुण था।  ब्राह्मण और वेदों का पंडित होने के कारण रावण को राजाओं ने सहायता प्रदान की और कुबेर को लंका से पृथक कर उन्हें लंका का स्वामी बना दिया।  जब वरुण का लंका के लिए चुनाव हुआ तो सब विद्वानों ने मिलकर इसका नाम रावण नियुक्त कर दिया।  'रावण' महादानी को कहा जाता है।  व्याकरण की दृष्टि से 'रावण' बुद्धिमान और विज्ञानवेत्ता को कहा जाता है।  यह कोई अपशब्द नहीं है।  व्याकरण की दृष्टि से, मानव समाज की दृष्टि से रावण महादानी को कहते हैं।

दशानन 

आधुनिक जगत में ऐसा कहा जाता है कि रावण के दस शीश थे, राम जब उन्हें नष्ट करते थे तो शीश द्वितीय उमड़ आते थे।  यह तो केवल उपहास है।  रावण को  क्यों कहते हैं? आनन नाम दिशाओं का है और यह पूर्व, पश्चिम, उत्तरायण और दक्षिणायन और इनकी चारों अस्थेती, पृथ्वी और अन्तरिक्ष  यह दस दिशाएं दिशाएं कहलाती हैं, इनके पूर्ण विज्ञान को राजा रावण जानते थे।  वे ब्राह्मण व महान प्रकांड बुद्धिमान थे। 

नाभि में अमृत कुण्ड 

ब्रह्मचारी वरुण सुशील था, वेदपाठी था, महान वैज्ञानिक था और महान बुद्धिमान था, उसकी आत्मा पवित्र थी, ह्रदय निर्मल हो गया था।  आयुर्वेद के सिद्धांत से इस वरुण ने जितना भी आयुर्वेद का नाड़ी विज्ञान था, वह जाना।  मनुष्य के शरीर में जो नाभि चक्र है इसमें लगभग दो करोड़ नाड़ियों का समूह है।  एक सुषुम्ना नाम की नाड़ी होती है जो मस्तिष्क से चलती है और उसका सम्बन्ध नाभि चक्र के अग्र भाग से होता है।  जो मनुष्य अच्छे विचार वाला होता है, परमपिता परमात्मा का चिंतन करने वाला होता है तो वह मनुष्य नाड़ी के विज्ञान से नाना विज्ञान को जानता है।  सुधित नाम की नाड़ी, उसको बोधित नाम की नाड़ी भी कहते हैं, जो ब्रह्म रंध्र से चलती है और उसका सम्बन्ध नाभि से रहता है । जब चन्द्रमा सम्पूर्ण कलाओं से पूर्णिमा के दिन परिपक्व होता है तो वह जो सुधित नाम की नाड़ी है उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से होता हुआ सीधा चन्द्रमा से हो जाता है।  चन्द्रमा से जो कांति मिलती है उसे वह नाड़ी पान करती है। 
जो नाड़ी विज्ञान को जानने वाले होते हैं वह जानते हैं कि योग के द्वारा किस प्रकार चन्द्रमा से अमृत की प्राप्ति होती है, इस प्रकार वह अमृत पकता है और जो नाड़ियों के मध्य स्थान होता है, उस स्थान में यह अमृत एकत्रित होता रहता है।  तो इसमें क्या विशेषता है? इससे मानव का जीवन बलिष्ठ होता है और मृत्यु से भी विजयी बन जाता है।  उसे यह ज्ञात हो जाता है कि तेरी मृत्यु अधिक काल में आएगी, उसकी आयु अधिक हो जाती है, क्योंकि वह आनंद रूपी अमृत नाभिस्थल में होता है।  तो इसी को नाभि में अमृतकुंड कहते हैं। 

शिक्षा 

राजा रावण ने महर्षि भारद्वाज, महर्षि सोमभुक तथा ब्रह्मा जी से विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी।  शिव भी रावण के गुरु थे। 

(पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी के प्रवचनों से)

आपका 
भवानन्द आर्य

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

अंगद और जामवंत

प्राण विद्या के विशेषज्ञ अंगद 
(पूज्य पाद गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी के प्रवचनों से )

हनुमान तो प्राण विद्या के विशेषज्ञ थे ही, यही विद्या बाली के पुत्र अंगद पर पहुंची।  राम ने अंगद से कहा कि हे अंगद! रावण के द्वार जाओ।  कुछ सुलह हो जाए, उनके और हमारे विचारों में एकता आ जाए, जाओ तुम उनको शिक्षा दो। 

अब अंगद रावण की सभा में पहुंचे तो वहाँ नाना वैज्ञानिक भी विराजमान थे, राजा रावण और उनके सर्व पुत्र विराजमान थे।  रावण ने कहा कि आओ! तुम्हारा आगमन कैसे हुआ? अंगद ने कहा कि प्रभु मैं इसलिए आया हूँ कि राम और तुम्हारे दोनों के विचारों में एकता आ जाए।  तुम्हारे यहाँ संस्कृति के प्रसार में अभाव आ गया है, अब मैं उस अभाव को शांत करने आया हूँ।  चरित्र की स्थापना करना राजा का कर्त्तव्य होता है, तुम्हारे राष्ट्र में चरित्र हीनता आ गयी है, तुम्हारा राष्ट्र उत्तम प्रतीत नहीं हो रहा है इसलिए मैं आज यहाँ आया हूँ।  रावण ने कहा यह तो तुम्हारा विचार यथार्थ है परन्तु मेरे यहाँ क्या सूक्ष्मता है?
अब अंगद बोले तुम्हारे यहाँ चरित्र की सूक्ष्मता है।  राजा के राष्ट्र में जब चरित्र नहीं होता तो संस्कृति का विनाश हो जाता है।  संस्कृति का विनाश नहीं होना चाहिए, संस्कृति का उत्थान करना है।  संस्कृति यहीं कहती है कि मानव के आचार व्यव्हार को सुन्दर बनाया जाए, महत्ता में लाया जाए, एक दूसरे की पुत्री की रक्षा होनी चाहिए।  वह राजा के राष्ट्र की पद्धति कहलाती है।  रावण ने पूछा क्या मेरे राष्ट्र में विज्ञानं नहीं? अंगद बोले कि हे रावण! तुम्हारे राष्ट्र में विज्ञानं है परन्तु विज्ञान का क्या बनता है? एक मंगल की यात्रा कर रहा है परन्तु मंगल की यात्रा का क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में अग्निकांड हो रहे हैं।  हे रावण! तुम सूर्य मंडल कि यात्रा कर रहे हो, उस सूर्य की यात्रा करने से क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में एक कन्या का जीवन सुरक्षित नहीं।  तुम्हारे राष्ट्र का क्या बनेगा? रावण ने कहा यह तुम क्या उच्चारण कर रहे हो, तुम अपने पिता की परंपरा शांत कर गए हो।  अंगद ने कहा कदापि नहीं, में इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे राष्ट्र और अयोध्या दोनों का समन्वय हो जाए। 
इसपर रावण मौन हो गया।  नरायान्तक बोले कि भगवन! इसको विचारा जाए, यह दूत है, यह क्या कहता है? अंगद बोले यदि भगवन! राम से तुम अपने विचारों का समन्वय कर लोगे तो राम माता सीता को लेकर चले जाएंगे। रावण ने कहा कि यह क्या उच्चारण कर रहा है? मैं धृष्ट नहीं हूँ।  अंगद बोले यहीं धृष्टता है संसार में, किसी दूसरे की कन्या को हरण करके लाना एक महान धृष्टता है।  तुम्हारी यह धृष्टता है कि राजा होकर भी परस्त्रीगामी बन गए हो।  जो राजा किसी स्त्री का अपमान करता है उस राजा के राष्ट्र में अग्नि काण्ड हो जाते हैं

रावण ने कहा कि यह कटु उच्चारण कर रहा है।  अंगद ने कहा कि मैं तुम्हें प्राण की एक क्रिया निश्चित कर रहा हूँ, यदि चरित्र की उज्ज्वलता है तो मेरा यह पग है इस योग को यदि तुम एक क्षण भी अपने स्थान से दूर कर दोगे तो मैं उस समय में माता सीता को त्याग करके राम को अयोध्या ले जाउंगा।
यही  उनकी प्राण की क्रिया थी। सर्व प्राण को एक पग में ले गए और उदान -प्राण, व्यान और अपान तीनों को मिलान कर के नाग की पुट लगा कर के, चारों प्राणों का मिलान हो कर के प्राण भी उसमें पुष्ट हो गया तो वह शरीर विशाल बन गया।  राज सभा में कोई ऐसा बलिष्ठ नहीं था जो उसके पग को एक क्षण भर भी अपनी स्थिति से दूर कर सके।  अंगद का पग जब जब एक क्षण भर दूर नहीं हुआ तो रावण उस समय स्वतः चला परन्तु रावण के आते ही उन्होंने कहा कि यह अधिराज है, अधिराजों से पग उठवाना सुन्दर नहीं है।  उन्होंने अपने पग को अपनी स्थली में नियुक्त कर दिया और कहा कि हे रावण! तुम्हें मेरे चरणों को स्पर्श करना निरर्थक है।  यदि तुम राम के चरणों को स्पर्श करो तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है, तुम्हारे विचारों का समन्वय हो जाएगा।
रावण मौन होकर अपने स्थल पर विराजमान हो गया।  नरायान्तक ने कहा कि हे पिता! जिस राजा की सेना में प्राण के ऐसे ऐसे विशषज्ञ हों, ऐसी सेना को हम विजय नहीं कर सकेंगे।  हम तो प्राणों को केवल विज्ञान में ही लाना जानते हैं परन्तु यह प्राणों को शिराओं में लाना जानता है।  जो शिराओं में प्राणों को लाना जानता है, हे पितृ ! उस सेना को संसार में कोई भी विजय नहीं कर सकता।

वैज्ञानिक राजा जामवंत
जामवंत को आज रीछ की संज्ञा दी जाती है परन्तु वह तो महान वैज्ञानिक थे।  समुद्र के तटों पर वह विज्ञान के एक मचान को निर्मित करते रहते थे , जिस मचान के द्वारा समुद्र में ऐसे यंत्रों को निर्धारित करते रहते थे कि जिनसे समुद्र के पदार्थों का ज्ञान हो जाता था।  उनके यंत्र उर्ध्व में आते थे।  उन्होंने और भी नाना यंत्रों का निर्माण किया था, वह राजा थे।  राजा  रावण ने इन सबके राज्यों को अपने अधीन बना लिया था। जामवंत ने युद्ध में राम की सहायता की थी।  उन्होंने राम को ऐसा यंत्र प्रदान किया जो विषैले परमाणुओं को अपने में निगल जाता था।


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आपका अपना
भवानंद आर्य 'अनुभव'

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

एक भजन

हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे ज़मीं खा गई नौजवान कैसे कैसे।

आज जवानी पर इतराने वाले कल पछताएगा चढ़ता सूरज ढलता है ढल जाएगा।

तू यहाँ मुसाफिर है ये सराय फानी है चार रोज़ की महमाँ तेरी ज़िंदगानी है।
धन ज़मीन ज़र ज़ेवर कुछ न साथ जाएगा खाली हाथ आया है खाली हाथ जाएगा।

जान कर भी अनजान बन रहा है दीवाने अपनी उम्र पामी पर तन रहा है दीवाने।
किस कदर तू खोया है इस जहाँ के मेले में तू खुदा को भुला है फँस के इस झमेले में।

आज तक ये देखा है पाने वाला खोता है ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है।
मिटने वाली दुनिया का एतबार करता है क्या समझ के तू आखिर इससे प्यार करता है।

अपनी अपनी फिकरों में जो भी है वो उलझा है ज़िन्दगी हक़ीक़त में क्या है कौन समझा है।
आज समझ ले कल ये मौक़ा हाथ तेरे न आयेगा ओ ग़फ़लत की नींद में सोने वाले धोखा खाएगा।


मौत ने ज़माने को ये समां दिखा डाला कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला।
याद रख सिकंदर के हौंसले तो आली थे जब गया था दुनियां से दोनों हाथ खाली थे।

अब न वो हलाकू हैं और न उसके साथी हैं जन वजू और तोरत और न उसके हाथी हैं।
कल जो बन के चलते थे अपनी शान ओ शोकत पर शम्मा तक नहीं जलती आज उनकी तुर्बत पर।

अदन हो या आला हो सब को लौट जाना है मुफलीसो समंदर का क़ब्र ही ठिकाना है ।
जैसी करनी करनी वैसी भरनी आज या कल पायेगा सर को उठा कर चलने वाले एक दिन ठोकर खायेगा।

मौत सब को आनी है कौन इससे छूटा है तू फ़ना नहीं होगा ये ख्याल झूंठा है।
सांस छूटते ही सब रिश्ते छूट जायेंगे बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे।

तेरी सारी उल्फत को खाक में मिला देंगे तेरे चाहने वाले कल तुझे भुला  देंगे।
इसलिए ये कहता हूँ खूब सोच ले मन में क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में।
 
कर गुनाहों से तौबा भाग्य कब संभल जाये दम का क्या भरोसा है जाने कब निकल जाये।
मुट्ठी बांध के आने वाले हाथ पसारे जायेगा धन दौलत तारीफ से तूने क्या पाया क्या पायेगा।


आपका अपना
भवानंद आर्य 'अनुभव'
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